झारखंड हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में यह निर्धारित किया है कि रिश्वतखोरी जैसे गंभीर कदाचार के आरोपी कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय कार्यवाही, समान तथ्यों पर आधारित आपराधिक मुकदमे के साथ-साथ चल सकती है। मुख्य न्यायाधीश तारलोक सिंह चौहान और न्यायमूर्ति राजेश शंकर की खंडपीठ ने लेटर्स पेटेंट अपीलों के एक समूह को खारिज करते हुए एकल न्यायाधीश के फैसले को बरकरार रखा। इस निर्णय के साथ ही, भारत कोकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) को अपने तीन कर्मचारियों के खिलाफ आंतरिक अनुशासनात्मक जांच जारी रखने की अनुमति मिल गई है।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि नियोक्ता को विभागीय कार्यवाही को अंतिम रूप देने से रोकना उचित नहीं होगा, खासकर तब जब आरोप गंभीर हों और कर्मचारियों की सत्यनिष्ठा तथा उनके कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित हों।
मामलों की पृष्ठभूमि
यह फैसला बीसीसीएल के तीन कर्मचारियों – संजय निषाद, भूतेश्वर प्रसाद शॉ और नरेश निषाद – द्वारा दायर तीन जुड़ी हुई अपीलों पर सुनाया गया। प्रत्येक अपीलकर्ता पर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के तहत कथित रूप से रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के लिए अलग-अलग आपराधिक मामले चल रहे थे।

- संजय निषाद, एक डिस्पैच क्लर्क, पर 29 जनवरी, 2018 की प्राथमिकी में एक पूर्व कर्मचारी के पिता के भविष्य निधि विवरण प्रदान करने के लिए ₹5,000 की रिश्वत मांगने का आरोप लगाया गया था। बीसीसीएल ने 12 जून, 2018 को रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के इसी आरोप के आधार पर उनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही शुरू की।
- भूतेश्वर प्रसाद शॉ, एक क्लर्क, पर 12 मई, 2020 की प्राथमिकी में एक सेवानिवृत्त कर्मचारी के सेवानिवृत्ति दावों को संसाधित करने के लिए ₹25,000 की रिश्वत मांगने और ₹10,000 की किस्त स्वीकार करने पर सहमत होने का आरोप था। इसके बाद, बीसीसीएल ने 4 जनवरी, 2021 को उन्हें आरोप पत्र दिया और इन्हीं आधारों पर विभागीय जांच शुरू की।
- नरेश निषाद, एक सहायक राजस्व निरीक्षक, पर 5 फरवरी, 2018 की प्राथमिकी के तहत एक भूमि अधिग्रहण दावे को संसाधित करने के लिए ₹5,000 की अवैध रिश्वत मांगने का आपराधिक मामला दर्ज किया गया था। उनकी गिरफ्तारी के बाद, बीसीसीएल ने 26-27 जून, 2018 को एक आरोप पत्र जारी किया, जिसमें रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के गंभीर कदाचार का आरोप लगाया गया।
तीनों ही मामलों में, अपीलकर्ताओं ने विभागीय कार्यवाही जारी रखने को रिट याचिकाओं के माध्यम से चुनौती दी थी, जिन्हें एक विद्वान एकल न्यायाधीश ने खारिज कर दिया था, जिसके बाद यह अपीलें दायर की गईं।
पक्षों की दलीलें
अपीलकर्ताओं के वकील की मुख्य दलील यह थी कि विभागीय जांच और आपराधिक कार्यवाही एक साथ नहीं चल सकती क्योंकि वे तथ्यों और सबूतों के समान सेट पर आधारित थीं। उन्होंने तर्क दिया कि विभागीय कार्यवाही जारी रखने से आपराधिक मुकदमे में उनके बचाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने आपराधिक मामलों के समापन तक अनुशासनात्मक कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट के स्टेनजेन टॉयोटेट्सु इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम गिरीश वी. व अन्य और कैप्टन एम. पॉल एंथोनी बनाम भारत कोलमाइंस लिमिटेड के फैसलों पर भरोसा किया।
प्रतिवादी, बीसीसीएल ने इस दृष्टिकोण का विरोध करते हुए अनुशासनात्मक कार्रवाई जारी रखने की दलील दी।
अदालत का विश्लेषण और तर्क
खंडपीठ ने एक साथ कार्यवाही पर कानूनी स्थिति का गहन विश्लेषण किया। अदालत ने कहा कि यह “सुस्थापित और निर्विवाद है कि अनुशासनात्मक कार्यवाही और आपराधिक मुकदमे को एक साथ चलाने पर कोई कानूनी रोक नहीं है।”
पीठ ने दोनों कार्यवाहियों के अलग-अलग उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा, “आपराधिक मुकदमा किसी अपराधी द्वारा समाज के प्रति अपने कर्तव्य के उल्लंघन के लिए चलाया जाता है, जबकि विभागीय जांच का उद्देश्य सेवा में अनुशासन और दक्षता बनाए रखना है।”
अपीलकर्ताओं द्वारा उद्धृत उदाहरणों पर विचार करते हुए, अदालत ने कहा कि कैप्टन एम. पॉल एंथोनी मामले में निर्णय स्वयं यह प्रावधान करता है कि यदि आपराधिक मुकदमे में अनावश्यक देरी होती है तो विभागीय कार्यवाही फिर से शुरू की जा सकती है। अदालत ने विभिन्न मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को सारांशित किया, जिनमें शामिल हैं:
- कर्नाटक राज्य सड़क परिवहन बनाम एम.जी. विट्ठल राव (2012) 1 SCC 442, जिसने स्थापित किया कि अनुशासनात्मक कार्यवाही पर रोक केवल “तथ्यों और कानून के जटिल प्रश्न” वाले मामलों में ही अनुमेय है, ताकि कर्मचारी के बचाव पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े, लेकिन ऐसी रोक का उपयोग विभागीय कार्रवाई में देरी के लिए नहीं किया जाना चाहिए।
- हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम सर्वेश जोशी (2005) 10 SCC 471, जिसमें यह माना गया था कि प्रत्येक मामले पर उसके अपने तथ्यों के आधार पर विचार किया जाना चाहिए और विभागीय जांच केवल तभी रोकी जाएगी जब यह “आपराधिक मामले में मुकदमे के दौरान दोषी के बचाव में गंभीर रूप से पूर्वाग्रह पैदा करेगी।”
हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले भारतीय खाद्य निगम बनाम हरीश प्रकाश হিনुनिया (2025) पर महत्वपूर्ण भरोसा किया, जिसमें एक समान ट्रैप मामला शामिल था। उस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि जब आरोप गंभीर हो और कर्मचारी के कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित हो, तो नियोक्ता को विभागीय कार्यवाही शुरू करने से रोकना अनुचित होगा। सुप्रीम कोर्ट को उद्धृत करते हुए, पीठ ने दोहराया: “…अपीलकर्ताओं को विभागीय कार्यवाही शुरू करने से रोकना उचित नहीं होगा क्योंकि आरोप गंभीर है और इसका संबंध प्रतिवादी द्वारा अपीलकर्ता-निगम में अपने कर्तव्यों और कार्यों के निर्वहन से है।”
फैसला
इस स्थापित कानून को मौजूदा तथ्यों पर लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ताओं के खिलाफ रिश्वत मांगने और स्वीकार करने के आरोप गंभीर प्रकृति के थे और सीधे तौर पर उनकी सत्यनिष्ठा और बीसीसीएल में उनके कार्यों के निर्वहन से संबंधित थे।
अदालत ने कहा, “चूंकि यहां अपीलकर्ताओं को रिश्वत का लाभार्थी कहा गया है और इसके लिए आपराधिक मामला दर्ज किया गया है और विभागीय कार्यवाही निष्कर्ष पर पहुंचने वाली है, हमारा सुविचारित मत है कि प्रतिवादियों को विभागीय कार्यवाही को अंतिम रूप देने से रोकना उचित नहीं होगा, क्योंकि आरोप गंभीर है और इसका संबंध अपीलकर्ता(ओं) द्वारा प्रतिवादी-निगम में अपने कर्तव्यों और कार्यों के निर्वहन से है।”
परिणामस्वरूप, अदालत ने अपीलों में कोई योग्यता नहीं पाई और उन्हें खारिज कर दिया, जिससे बीसीसीएल को कर्मचारियों के खिलाफ विभागीय जांच को आगे बढ़ाने और अंतिम रूप देने की अनुमति मिल गई। पक्षकारों को अपना-अपना खर्च वहन करने का निर्देश दिया गया।