सार्वजनिक दबाव में पीठ बदलना गलत संदेश देता है: सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति अभय ओका ने जस्टिस पारदीवाला से आवारा कुत्तों का मामला हटाए जाने की आलोचना की

सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट न्यायाधीश अभय एस. ओका ने जस्टिस जे.बी. पारदीवाला की पीठ से आवारा कुत्तों से जुड़े मामले को हटाए जाने की आलोचना की है। मई में सेवानिवृत्ति के बाद अपने पहले सार्वजनिक बयान में उन्होंने कहा कि इस तरह पीठों का गठन बदलना और मामलों को हटाना, यदि यह सार्वजनिक दबाव के बाद किया जाए, तो “गलत संदेश” देता है।

विवाद के बाद पीठ बदली गई

मामला जस्टिस पारदीवाला के 11 अगस्त के आदेश से जुड़ा है, जिसमें दिल्ली और आसपास के जिलों में आवारा कुत्तों को बड़े पैमाने पर पकड़कर शेल्टर में रखने का निर्देश दिया गया था। इस आदेश की आलोचना के बाद, मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने प्रशासनिक आदेश के जरिए यह मामला उनकी पीठ से हटाकर बड़ी पीठ को सौंप दिया। 22 अगस्त को नई पीठ ने पहले के आदेश में संशोधन करते हुए उसे “अत्यधिक कठोर” बताया।

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जस्टिस ओका ने स्पष्ट कहा, “अगर इसे बड़ी पीठ को भेजना था, तो वही पीठ जारी रह सकती थी और एक और जज को जोड़ा जा सकता था।” उनका मानना है कि मूल न्यायाधीश को हटाना सिद्धांत रूप से गलत था।

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सीजेआई के पत्र पर भी सवाल

जस्टिस ओका ने उस मामले का भी जिक्र किया, जिसमें सीजेआई गवई ने कथित तौर पर जस्टिस पारदीवाला को 4 अगस्त के आदेश में बदलाव करने का अनुरोध किया था। उस आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज को उनके कार्यकाल के शेष समय के लिए आपराधिक मामलों की सुनवाई से रोक दिया गया था। उन्होंने स्पष्ट किया कि पीठ अपने आदेश को पुनः सूचीबद्ध कर, पक्षों को सुनकर, वापस ले सकती है या संशोधित कर सकती है, लेकिन “यह स्पष्ट है कि मुख्य न्यायाधीश किसी पीठ को पत्र लिखकर आदेश संशोधित करने के लिए नहीं कह सकते।”

पर्यावरण से जुड़े आदेशों पर टिप्पणी

जस्टिस ओका ने हाल ही में 2018 के उस सुप्रीम कोर्ट आदेश पर लगी अंतरिम रोक पर भी टिप्पणी की, जिसमें दिल्ली में पुराने वाहनों के चलने पर प्रतिबंध लगाया गया था। उन्होंने कहा, “2018 का आदेश कई पहलुओं को देखकर पारित हुआ था। अदालतों को उस पर रोक लगाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी।” उन्होंने पर्यावरण कार्यकर्ताओं से अपील की कि इस साल के अंत में प्रदूषण स्तर बढ़ने से पहले वे फिर से अदालत का रुख करें।

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पारदर्शी पीठ आवंटन की मांग

व्यक्तिगत मामलों से आगे बढ़ते हुए, जस्टिस ओका ने संरचनात्मक सुधारों पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट में भी हाईकोर्ट की तरह स्थायी रोस्टर प्रणाली लागू होनी चाहिए। वर्तमान में शीर्ष अदालत की रजिस्ट्री के अधिकारी सूचीकरण में काफी विवेकाधिकार रखते हैं, जिससे पीठ आवंटन की शक्ति मुख्य न्यायाधीश के पास केंद्रित हो जाती है।

उन्होंने सीजेआई गवई के हालिया बयान का स्वागत किया कि वह “समानों में प्रथम” हैं, लेकिन जोर दिया कि अहम प्रशासनिक फैसले सामूहिक रूप से होने चाहिए। उनके शब्दों में, “ऐसे फैसले पूरे न्यायालय द्वारा लिए जाने चाहिए, क्योंकि जब हम ‘सुप्रीम कोर्ट’ को प्रशासनिक पक्ष में कहते हैं, तो इसका सामान्य अर्थ होता है—पूरा न्यायालय।”

जस्टिस ओका की विरासत

जस्टिस ओका 24 मई को सेवानिवृत्त हुए। चार वर्षों में उन्होंने करीब 350 फैसले सुनाए। उनकी विरासत में नागरिक स्वतंत्रता, प्रक्रिया संबंधी सुरक्षा, पर्यावरणीय नियम और प्रेस की स्वतंत्रता से जुड़े अहम निर्णय शामिल हैं।

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उन्होंने मनी लॉन्ड्रिंग रोकथाम कानून (PMLA) और गैरकानूनी गतिविधियां (निवारण) अधिनियम (UAPA) जैसे सख्त कानूनों के तहत जांच एजेंसियों की शक्तियों पर अंकुश लगाने और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करने में अहम भूमिका निभाई।

वायु प्रदूषण पर उनके फैसले भी महत्वपूर्ण रहे—पटाखों पर स्थायी प्रतिबंध लागू करने से लेकर दिल्ली-एनसीआर में ‘ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान’ को समय से पहले लागू करने तक।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के क्षेत्र में, उन्होंने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द करते हुए यह स्पष्ट किया कि व्यंग्य, साहित्य और असहमति, लोकतंत्र के लिए आवश्यक हैं।

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