CrPC धारा 195 | न्यायिक अधिकारी की शिकायत पर पुलिस जांच का आदेश देना मजिस्ट्रेट की गंभीर त्रुटि; सीधे संज्ञान लिया जाना चाहिए था: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 186 के तहत न्यायिक अधिकारी द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत पर दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 156(3) के तहत पुलिस जांच का आदेश देना मजिस्ट्रेट द्वारा की गई “बहुत गंभीर त्रुटि” है। न्यायमूर्ति जे.बी. पारडीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट को CrPC की धारा 195 के अनुसार सीधे संज्ञान लेना चाहिए था।

हालाँकि, कोर्ट ने विशेष अनुमति याचिका (SLP) को इस स्तर पर FIR रद्द करने से इंकार करते हुए निपटा दिया, लेकिन याचिकाकर्ता को ट्रायल कोर्ट में धारा 195 CrPC के तहत आपत्ति उठाने की स्वतंत्रता दी, यदि आरोपपत्र दाखिल होता है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला 3 अक्टूबर 2013 की घटना से जुड़ा है, जब रवि दत्त शर्मा, शाहदरा की नजारत शाखा में प्रोसेस सर्वर, कोर्ट द्वारा जारी वारंट और समन की तामीली के लिए नंद नगरी पुलिस स्टेशन गए। उनका आरोप था कि SHO इंस्पेक्टर देवेंद्र कुमार सहित अन्य पुलिसकर्मियों ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया और उनके कार्य में बाधा पहुंचाई।

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शिकायत के अनुसार, एक कांस्टेबल ने दस्तावेज़ गलत तरीके से लिए, और प्रोसेस सर्वर को काफी देर तक बैठाए रखा गया। SHO ने उन्हें अपशब्द कहे, आधे घंटे तक हाथ ऊपर करके खड़ा किया, फिर ज़मीन पर तीन-चार घंटे बैठाया और उन्हें तब तक नहीं छोड़ा जब तक एक हेड कांस्टेबल आकर दस्तावेजों की रसीद नहीं दे गया।

इसके बाद प्रोसेस सर्वर ने जिला एवं सत्र न्यायाधीश, शाहदरा को रिपोर्ट दी, जिन्होंने यह शिकायत प्रशासनिक सिविल जज (ACJ) को भेजी। ACJ ने CrPC की धारा 195 के तहत मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट (CMM), कड़कड़डूमा कोर्ट, दिल्ली के समक्ष निजी शिकायत दर्ज कराई।

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28 नवंबर 2013 को CMM ने CrPC की धारा 156(3) के तहत SHO के विरुद्ध IPC की धारा 186 (लोक सेवक को कार्य से रोकना) और 341 (गलत तरीके से रोकना) के अंतर्गत FIR दर्ज करने का आदेश दिया। इस आदेश को सत्र न्यायालय और दिल्ली हाई कोर्ट ने बरकरार रखा, जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की गई।

याचिकाकर्ता की दलीलें

याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता श्री निकिलेश रामचंद्रन ने तर्क दिया कि शिकायत में लगाए गए आरोप अगर सही भी मान लिए जाएं, तो वे IPC की धारा 186 के तहत अपराध नहीं बनाते। उन्होंने कहा कि ‘अवरोध’ तभी माना जा सकता है जब उसमें आपराधिक बल का प्रयोग हो। इसके अलावा, यह भी कहा गया कि IPC की धारा 186 के तहत CrPC की धारा 195(1)(a) में स्पष्ट रोक है, और केवल संबंधित लोक सेवक या उसके वरिष्ठ द्वारा लिखित शिकायत पर ही संज्ञान लिया जा सकता है, न कि धारा 156(3) CrPC के तहत पुलिस जांच का आदेश दिया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

कोर्ट ने अपने विश्लेषण की शुरुआत मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट द्वारा की गई प्रक्रिया से की। कोर्ट ने माना कि ACJ द्वारा धारा 195 CrPC के तहत शिकायत दायर करना सही था, लेकिन उसके बाद की कार्रवाई दोषपूर्ण थी।

कोर्ट ने कहा:

“मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट को उक्त शिकायत पर सीधे संज्ञान लेना चाहिए था और याचिकाकर्ता के खिलाफ प्रक्रिया जारी करनी चाहिए थी। शिकायत की जांच के लिए CrPC की धारा 156(3) के तहत पुलिस को निर्देश देना, मुख्य महानगरीय मजिस्ट्रेट द्वारा की गई एक अत्यंत गंभीर त्रुटि मानी जा सकती है।”

पीठ ने यह भी कहा कि जब शिकायत खुद एक सिविल जज द्वारा दर्ज कराई गई हो, तब पुलिस को बीच में लाने की क्या आवश्यकता थी। कोर्ट ने कहा कि “इसमें न्यायपालिका की गरिमा दांव पर थी।”

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IPC की धारा 186 के तहत ‘अवरोध’ की व्याख्या

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि IPC की धारा 186 के तहत ‘अवरोध’ का अर्थ केवल शारीरिक बाधा नहीं है। अपने पिछले फैसले Collector of Customs and Central Excise बनाम Paradip Port Trust का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:

“‘अवरोध’ केवल शारीरिक बाधा तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें वह सभी कृत्य शामिल हैं जो पुलिस या लोक सेवक के कर्तव्यों के निर्वहन को अधिक कठिन बना देते हैं।”

कोर्ट ने यह भी कहा:

“यह आवश्यक नहीं है कि संबंधित कृत्य हिंसात्मक हो; यदि वह कृत्य लोक सेवक को उसके वैध कर्तव्यों के निर्वहन से रोकता है, तो वह पर्याप्त है।”

इस आधार पर, कोर्ट ने माना कि यदि शिकायत में लगाए गए आरोप सही साबित होते हैं, तो वे IPC की धारा 186 के अंतर्गत अपराध को स्थापित करते हैं।

CrPC की धारा 195 के तहत संज्ञान की बाधा

न्यायालय ने CrPC की धारा 195(1)(a)(i) के तहत संज्ञान लेने पर लागू प्रतिबंध का विस्तार से विश्लेषण किया। कोर्ट ने कहा कि यह प्रावधान “निजी व्यक्तियों द्वारा लापरवाह व गैर-जिम्मेदार अभियोजन” से सुरक्षा प्रदान करने के लिए है।

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि कोई अन्य अपराध (जैसे धारा 341 IPC) उसी लेन-देन का हिस्सा हो, तो धारा 195 की रोक उन पर भी लागू हो सकती है। इस संबंध में कोर्ट ने State of U.P. बनाम सुरेश चंद्र श्रीवास्तव व अन्य का हवाला दिया।

हालाँकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 195 CrPC, पुलिस द्वारा जांच करने की वैधानिक शक्ति पर रोक नहीं लगाती। State of Punjab बनाम राज सिंह और M. Narayandas बनाम राज्य कर्नाटक के फैसलों के आधार पर कोर्ट ने कहा:

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“धारा 195 के तहत रोक तब लागू होती है जब न्यायालय CrPC की धारा 190(1) के अंतर्गत किसी अपराध का संज्ञान लेने की मंशा रखता है; इसका पुलिस की वैधानिक जांच शक्ति से कोई लेना-देना नहीं है।”

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि CrPC की धारा 195(1)(a)(i) के अनुसार, IPC की धारा 186 के अंतर्गत कोई भी अदालत तब तक संज्ञान नहीं ले सकती जब तक संबंधित लोक सेवक या उसके उच्चाधिकारी द्वारा लिखित शिकायत न दी गई हो। इस प्रावधान का उल्लंघन अभियोजन को अमान्य कर देता है।

हालांकि मजिस्ट्रेट की गंभीर त्रुटि को चिह्नित किया गया, कोर्ट ने FIR को रद्द नहीं किया। याचिका को इस छूट के साथ निपटाया गया कि याचिकाकर्ता देवेंद्र कुमार, यदि आरोपपत्र दायर होता है, तो ट्रायल कोर्ट में CrPC की धारा 195 के तहत आपत्ति उठा सकते हैं।

साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय की एक प्रति सभी उच्च न्यायालयों को प्रेषित करने का निर्देश दिया।

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