“राष्ट्रपति यदि न्यायालय से राय मांगें तो इसमें गलत क्या है?”: विधेयकों पर सहमति की समय-सीमा संबंधी अनुच्छेद 143 के संदर्भ पर सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संकेत दिया कि राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भेजा गया संदर्भ, जिसमें विधायिकाओं द्वारा पारित विधेयकों पर सहमति देने की समय-सीमा से जुड़ी न्यायिक व्याख्या पर राय मांगी गई है, पूरी तरह से स्वीकार्य है। संविधान पीठ ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति द्वारा न्यायालय से राय लेना असंवैधानिक नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता में गठित पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ, जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी. एस. नरसिम्हा और अतुल एस. चांदुरकर भी शामिल हैं, ने केरल और तमिलनाडु राज्यों द्वारा उठाई गई प्रारंभिक आपत्तियों पर सुनवाई की। इन राज्यों ने राष्ट्रपति के संदर्भ की ग्राह्यता पर आपत्ति जताई थी और कहा कि यह पहले दिए गए निर्णय को अप्रत्यक्ष रूप से पलटने का प्रयास है।

इन आपत्तियों पर जवाब देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा, “अगर राष्ट्रपति अदालत से राय मांगते हैं तो इसमें गलत क्या है?” उन्होंने इस आधार पर आपत्तियों की गंभीरता पर सवाल उठाए।

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पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि वह इस मामले में परामर्शात्मक अधिकारिता (advisory jurisdiction) में काम कर रही है, न कि पहले दिए गए निर्णय की अपील के रूप में। न्यायालय ने कहा कि वह पूर्व निर्णय की वैधता पर राय दे सकती है, लेकिन उसकी राय उस निर्णय को निरस्त नहीं करेगी।

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जब सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया कि परामर्शात्मक अधिकारिता में भी न्यायालय पूर्व निर्णय को पलट सकता है, तो इस पर मुख्य न्यायाधीश ने टिप्पणी की कि “दृष्टिकोण बदला जा सकता है, लेकिन अंतिम निर्णय advisory jurisdiction में पलटा नहीं जाता।”

पृष्ठभूमि

यह संदर्भ अप्रैल 2024 के राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले से संबंधित है, जिसमें न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने निम्नलिखित निर्णय दिए थे:

  • अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को विधेयक पर “उचित समय” के भीतर कार्य करना होगा।
  • संवैधानिक मौन का उपयोग विधायी प्रक्रिया को अनिश्चितकाल के लिए रोकने के लिए नहीं किया जा सकता।
  • राष्ट्रपति की अनुच्छेद 201 के तहत निर्णय प्रक्रिया न्यायिक समीक्षा से बाहर नहीं है।
  • राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए, और यदि विलंब हो, तो उसके कारण राज्य सरकार को सूचित करने होंगे।
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इस निर्णय के बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को 14 प्रश्नों वाला एक संदर्भ भेजा। इनमें यह प्रश्न भी शामिल हैं कि क्या न्यायपालिका संविधान की चुप्पी वाले क्षेत्रों में प्रक्रिया निर्धारित कर सकती है और क्या समय-सीमाएं लगाना राष्ट्रपति और राज्यपाल को प्राप्त विवेकाधीन शक्तियों में हस्तक्षेप होगा।

राज्यों की आपत्ति

केरल ने इस संदर्भ की ग्राह्यता पर आपत्ति जताते हुए न्यायालय से अनुरोध किया कि इसे उत्तर दिए बिना लौटा दिया जाए। राज्य का तर्क था कि यह एक “बाइंडिंग निर्णय” को अप्रत्यक्ष रूप से पलटने का प्रयास है।

तमिलनाडु ने भी आपत्ति जताई और कहा कि यह संदर्भ सर्वोच्च न्यायालय के उस निर्णय को फिर से खोलने की कोशिश है, जिसने पहले ही अनुच्छेद 200 और 201 की संवैधानिक व्याख्या स्पष्ट कर दी है।

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केंद्र सरकार का समर्थन

केंद्र सरकार ने राष्ट्रपति द्वारा भेजे गए संदर्भ का समर्थन करते हुए कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल की विधेयकों पर कार्रवाई करने की शक्ति एक “महत्वपूर्ण संवैधानिक विशेषाधिकार” है और उस पर न्यायिक समय-सीमाएं लागू नहीं की जा सकतीं।

न्यायालय करेगा विषयों पर विचार

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह अप्रैल में दिए गए निर्णय की समीक्षा नहीं कर रहा है, बल्कि संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत प्रस्तुत प्रश्नों पर राय देगा। न्यायालय की यह परामर्शात्मक राय बाध्यकारी तो नहीं होगी, लेकिन इसका संवैधानिक महत्व रहेगा।

अब सुनवाई आगे बढ़ेगी और संविधान पीठ उन प्रमुख सवालों पर विचार करेगी जो राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए हैं।

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