हत्या मामले में तीसरी बार जमानत रद्द; सुप्रीम कोर्ट ने ‘जेलों में भीड़भाड़’ को आधार मानने पर हाईकोर्ट की आलोचना की

सुप्रीम कोर्ट ने हत्या और दंगा मामले के एक आरोपी को इलाहाबाद हाईकोर्ट से मिली जमानत को तीसरी बार रद्द करते हुए कहा कि हाईकोर्ट ने पूर्व आदेशों का पालन नहीं किया और “पूरी तरह अनुचित” आधारों पर राहत दी। न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एस.वी.एन. भट्टी की पीठ ने स्पष्ट किया कि इतने गंभीर अपराध में “जेलों में 5-6 गुना भीड़भाड़” जैसे कारण जमानत का आधार नहीं बन सकते।

अदालत ने आरोपी को तीन सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया और कहा कि वह मुकदमे की समाप्ति तक हिरासत में रहेगा।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील सूचना देने वाले पक्षकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के 3 जून 2025 के आदेश के खिलाफ दायर की थी, जिसमें आरोपी को जमानत दी गई थी। आरोपी पर भारतीय दंड संहिता की धाराएं 147, 148, 149, 352, 302, 307, 504 और 34 के तहत आरोप हैं।

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हाईकोर्ट ने पहली बार 22 अगस्त 2022 को जमानत दी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 14 अक्टूबर 2022 को रद्द कर दिया और मामले को पुनर्विचार के लिए भेजा। बाद में 7 दिसंबर 2022 को फिर जमानत दी गई, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 17 मई 2024 को निरस्त किया। उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया था—
“यह भी स्पष्ट किया जाता है कि यदि कोई नई परिस्थिति उत्पन्न होती है तो प्रतिवादी बाद में जमानत के लिए आवेदन कर सकता है।”

इसके बाद ट्रायल कोर्ट ने 20 जनवरी 2025 को जमानत याचिका खारिज कर दी। हाईकोर्ट ने जून 2025 में फिर से जमानत दी, जिसके खिलाफ वर्तमान अपील दायर हुई।

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अपीलकर्ता के तर्क

अपीलकर्ता की ओर से कहा गया कि “नई परिस्थिति” का मतलब केवल वे हालात हैं जो 17 मई 2024 के बाद उत्पन्न हुए हों। हिरासत की अवधि या सह-आरोपियों को मिली जमानत जैसे कारण नए नहीं हैं। यह भी दलील दी गई कि आरोपी ने पहले गवाहों को धमकाया और उसकी आपराधिक पृष्ठभूमि है।

प्रतिवादी के तर्क

प्रतिवादी की ओर से वरिष्ठ वकील ने कहा कि जमानत तभी रद्द होनी चाहिए जब उसका दुरुपयोग हो, जो यहां नहीं हुआ। उन्होंने दावा किया कि न तो मुकदमे में कोई बाधा डाली गई और न ही कोई आपराधिक गतिविधि हुई। यह भी कहा गया कि सह-आरोपियों को मिली जमानत के आधार पर प्रतिवादी को भी राहत मिलनी चाहिए।

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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और विश्लेषण

पीठ ने कहा, “पूरे मामले पर विचार करने के बाद हम स्पष्ट रूप से कहते हैं कि चुनौती दिया गया आदेश हस्तक्षेप योग्य है।”

अदालत ने जोर देकर कहा, “संविधान की रूपरेखा यह अनिवार्य करती है कि इस न्यायालय के सभी आदेशों/निर्णयों का पालन सभी अन्य न्यायालयों, जिसमें उच्च न्यायालय भी शामिल हैं, अक्षरशः और भावार्थ दोनों रूप में किया जाए।”

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने 17 मई 2024 के आदेश का सही पालन नहीं किया और जमानत के लिए खुली “सीमित खिड़की” से बाहर जाकर राहत दी। “पुलिस की एकतरफा जांच” और “आरोपी पक्ष की अनदेखी” जैसी टिप्पणियां जमानत पर विचार करते समय प्रासंगिक नहीं थीं।

जेल की भीड़भाड़ पर कोर्ट ने कहा, “आरोपित अपराध की गंभीरता को देखते हुए, हाईकोर्ट के लिए ‘जेलों में 5-6 गुना भीड़भाड़’ को जमानत का आधार बनाना उचित नहीं था।”

फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते हुए जमानत समाप्त कर दी और आरोपी को तीन सप्ताह में आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया। ट्रायल कोर्ट को मुकदमे को प्राथमिकता से और शीघ्र निपटाने के निर्देश दिए गए।

अंत में कोर्ट ने स्पष्ट किया कि आरोपी मुकदमे की समाप्ति तक हिरासत में रहेगा। हालांकि, यदि मुकदमा बिना उसकी गलती के विलंबित होता है, तो वह सीधे सुप्रीम कोर्ट में जमानत के लिए आवेदन कर सकता है।

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