अनुबंध के उल्लंघन को अपराध नहीं माना जा सकता जब तक कि शुरुआत से ही बेईमानी की नीयत न हो: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि बिक्री अनुबंध (Agreement to Sell) के उल्लंघन मात्र को, यदि शुरुआत से धोखाधड़ी या बेईमानी की मंशा न हो, आपराधिक मामला नहीं बनाया जा सकता। इसे सिर्फ सिविल विवाद माना जाएगा।

न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने इस आधार पर एक एफआईआर और उसके बाद की सभी कार्यवाहियों को रद्द कर दिया। यह मामला बेंगलुरु स्थित एक संपत्ति को लेकर था जिसमें आरोप धोखाधड़ी और आपराधिक विश्वासघात के थे। सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस आदेश को भी रद्द कर दिया जिसमें एफआईआर खारिज करने से इनकार कर दिया गया था।

पीठ ने कहा कि यह “मूलतः एक सिविल विवाद” है और इस प्रकार के मामलों में आपराधिक मुकदमेबाज़ी की अनुमति देना “न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग” होगा।

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पृष्ठभूमि

यह मामला 2022 में कीर्तिराज शेट्टी द्वारा दाखिल एक निजी शिकायत (PCR) से शुरू हुआ, जिसके आधार पर एफआईआर दर्ज की गई थी। विवादित संपत्ति बेंगलुरु के भूपासंद्रा गांव में स्थित है, जो अपीलकर्ताओं के परिवार की संयुक्त संपत्ति थी।

शिकायतकर्ता का आरोप था कि अपीलकर्ताओं ने संपत्ति के अधिग्रहण के मामले में बंगलुरु विकास प्राधिकरण (BDA) के खिलाफ लंबी लड़ाई के लिए रवीशंकर शेट्टी की सहायता ली थी। इस समझ के तहत कि जब संपत्ति बाजार में बेचने योग्य हो जाएगी, तो उसे रवीशंकर शेट्टी को बेचा जाएगा।

30 नवंबर 2015 को अपीलकर्ताओं और शिकायतकर्ता (जो रवीशंकर शेट्टी के नामित थे) के बीच ₹3.50 करोड़ की बिक्री के लिए एक समझौता (ATS) हुआ। साथ ही शिकायतकर्ता के पक्ष में जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी (GPA) भी जारी की गई।

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बाद में जब BDA की अधिग्रहण प्रक्रिया न्यायालय द्वारा अमान्य घोषित कर दी गई और संपत्ति की बाजार कीमत बढ़ गई, तो अपीलकर्ताओं ने GPA रद्द कर दी और संपत्ति को आपसी रिलीज डीड और गिफ्ट डीड के ज़रिए आपस में हस्तांतरित कर लिया।

इसके बाद शिकायतकर्ता ने पहले एक सिविल मुकदमा दायर किया और फिर भारतीय दंड संहिता की धारा 405, 406, 415, 420 और 120B के तहत आपराधिक शिकायत भी दर्ज करवाई।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं की दलीलें:
वरिष्ठ अधिवक्ता के माध्यम से पेश अपीलकर्ताओं ने कहा कि मामला पूरी तरह सिविल प्रकृति का है और FIR में धोखाधड़ी व आपराधिक विश्वासघात के आवश्यक तत्व मौजूद नहीं हैं। शिकायतकर्ता ने खुद माना है कि अपीलकर्ताओं ने तब “धोखा देना शुरू किया” जब संपत्ति का मूल्य बढ़ गया, जिससे स्पष्ट होता है कि शुरुआत में कोई बेईमानी की नीयत नहीं थी। उन्होंने Delhi Race Club (1940) Ltd v. State of U.P. का हवाला दिया और कहा कि IPC की धारा 406 और 420 एक ही लेन-देन में एक साथ लागू नहीं हो सकतीं।

शिकायतकर्ता की दलीलें:
शिकायतकर्ता का कहना था कि FIR से प्रथम दृष्टया अपराध बनता है। अपीलकर्ताओं ने जानबूझकर संपत्ति का शीर्षक स्पष्ट करवाने के लिए उनकी मदद ली और फिर GPA रद्द कर ATS को निष्प्रभावी करने के लिए संपत्ति आपस में स्थानांतरित कर ली। इससे उनकी बेईमानी की मंशा स्पष्ट होती है।

राज्य की दलीलें:
कर्नाटक राज्य ने अभियोजन का समर्थन करते हुए कहा कि जांच और आरोपपत्र में यह सामने आया है कि अपीलकर्ताओं की शुरू से ही धोखाधड़ी की मंशा थी।

सुप्रीम कोर्ट की विश्लेषणात्मक टिप्पणियां

पीठ ने दो मुख्य प्रश्नों पर विचार किया:

  1. क्या प्रस्तुत तथ्यों से कोई आपराधिक अपराध बनता है?
  2. क्या एक ही मामले में सिविल और आपराधिक कार्रवाई साथ-साथ चल सकती है?
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कोई आपराधिक अपराध नहीं बनता:

  • धारा 406 (आपराधिक विश्वासघात): कोर्ट ने कहा कि “IPC की धारा 405 के अनुसार, आपराधिक विश्वासघात तब बनता है जब किसी व्यक्ति को संपत्ति सौंप दी गई हो। लेकिन इस मामले में अपीलकर्ता खुद उस संपत्ति के मालिक हैं। अतः धारा 406 लागू नहीं होती।”
  • धारा 420 (धोखाधड़ी): कोर्ट ने पाया कि समझौते के समय कोई धोखाधड़ी या झूठा प्रलोभन नहीं था। केवल बाद में समझौते का पालन न करना आपराधिक धोखाधड़ी नहीं कहलाता। न्यायालय ने धारा 415 के एक उदाहरण का उल्लेख करते हुए कहा, “यदि A पैसे लेते समय वास्तव में माल देना चाहता था, लेकिन बाद में समझौता तोड़ देता है, तो यह धोखाधड़ी नहीं है, बल्कि केवल सिविल उल्लंघन है।”

कोर्ट ने दोहराया कि IPC की धारा 406 और 420 को एक ही लेन-देन पर एक साथ लागू नहीं किया जा सकता।

सिविल बनाम आपराधिक कार्यवाही:
कोर्ट ने माना कि सैद्धांतिक रूप से सिविल और आपराधिक कार्यवाही साथ चल सकती हैं, लेकिन सिविल विवाद को आपराधिक रंग देना अनुचित है। Paramjeet Batra v. State of Uttarakhand में कही बात को उद्धृत करते हुए कोर्ट ने कहा:

“हाईकोर्ट को देखना चाहिए कि क्या एक सिविल विवाद को आपराधिक अपराध का आवरण दिया जा रहा है। यदि सिविल उपाय मौजूद है और अपनाया गया है, जैसा कि इस मामले में हुआ, तो अदालत को आपराधिक कार्यवाही रद्द करने में हिचक नहीं करनी चाहिए।”

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निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए FIR क्रमांक 260/2023, आरोपपत्र और मजिस्ट्रेट द्वारा लिया गया संज्ञान रद्द कर दिया। न्यायहित में, पीठ ने उस सह-आरोपी को भी राहत दी जो अपीलकर्ता नहीं था और कहा, “न्याय की मांग और समानता के सिद्धांत के तहत यह आवश्यक है।”

BDA पर न्यायालय की टिप्पणियां

निर्णय के अंत में, पीठ ने बंगलुरु विकास प्राधिकरण (BDA) की भूमिका पर गंभीर चिंता जताई। कोर्ट ने कहा कि जब BDA की डिनोटिफिकेशन रद्द कर दी गई थी, तब उसने एक हाईकोर्ट के आदेश को चुनौती दी लेकिन बाद में वह अपील वापस ले ली — यह “संभावित मिलीभगत” का संकेत है।

हालांकि कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए स्वतः जांच का विचार किया, लेकिन BDA द्वारा दायर एक संबंधित याचिका अन्य पीठ में लंबित होने के कारण ऐसा करने से परहेज़ किया।

कोर्ट ने निर्देश दिया कि यह निर्णय उस लंबित एसएलपी के रिकॉर्ड में दर्ज किया जाए और कहा, “जब तक वह मामला निपटता नहीं, अपीलकर्ता संपत्ति में किसी तीसरे पक्ष को अधिकार नहीं देंगे।”

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