मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने सिविल जज (जूनियर डिवीजन) कौस्तुभ खेरा की सेवा से बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए उनकी याचिका को खारिज कर दिया है। खेरा पर आरोप था कि उन्होंने खुले न्यायालय में वकीलों और पुलिसकर्मियों से उठक-बैठक करवाई और अन्य प्रशासनिक व न्यायिक अनियमितताएं कीं। अदालत ने स्पष्ट किया कि यह बर्खास्तगी अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं थी, बल्कि प्रॉबेशन अवधि के दौरान की गई वैधानिक प्रशासनिक प्रक्रिया थी।
मुख्य न्यायाधीश श्री सुरेश कुमार कैत एवं न्यायमूर्ति श्री विवेक जैन की पीठ ने रिट याचिका क्रमांक 10052/2025 को खारिज करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता को सेवा से हटाना एमपी न्यायिक सेवा (भर्ती एवं सेवा शर्तें) नियम, 1994 के नियम 11(ग) के तहत एक प्रशासनिक निर्णय है।
मामले की पृष्ठभूमि

कौस्तुभ खेरा को 12 मार्च 2019 को मध्य प्रदेश न्यायिक सेवा में प्रोबेशनर के रूप में नियुक्त किया गया था और बाद में अलीराजपुर जिले के जोबट में तैनात किया गया। तीन वर्ष की निर्धारित प्रोबेशन अवधि पूरी होने के बावजूद उन्हें नियमित नियुक्ति नहीं दी गई और 5 सितंबर 2024 को मध्य प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट की प्रशासनिक समिति की अनुशंसा पर उन्हें सेवा से मुक्त कर दिया। खेरा ने इस आदेश को अनुशासनात्मक करार देते हुए इसे संविधान के मौलिक सिद्धांतों के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी थी।
याचिकाकर्ता के तर्क
खेरा ने स्वयं पक्ष रखते हुए कहा कि यह बर्खास्तगी आदेश सतही रूप से तो साधारण डिस्चार्ज के रूप में प्रस्तुत किया गया, परंतु यह वस्तुतः दंडात्मक था। उन्होंने RTI के माध्यम से प्राप्त शिकायतों और प्रारंभिक जांच रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि उन्हें बिना विभागीय जांच के हटाया गया, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।
उन पर लगाए गए मुख्य आरोपों में शामिल थे:
- वकीलों, पुलिसकर्मियों व कर्मचारियों से दुर्व्यवहार
- बिना अधिकार के अवमानना कार्यवाही शुरू करना और बंद करना
- अदालत में वकीलों और पुलिस से उठक-बैठक कराना
- महिला कर्मचारियों से गाली-गलौच व शारीरिक हमले की कोशिश
- बिना अनुमति मुख्यालय छोड़ना
- अधिकार क्षेत्र से बाहर दंडात्मक कार्रवाई करना
खेरा ने यह भी तर्क दिया कि उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ACR) में कुछ वर्षों में “B” ग्रेड (बहुत अच्छा) दिया गया था और उनकी कार्यक्षमता में भी सुधार हुआ था। उन्होंने दावा किया कि पांच वर्षों से अधिक समय तक प्रोबेशन में रहने के कारण उनकी सेवा स्वतः नियमित मानी जानी चाहिए थी।
प्रतिवादी के तर्क
हाईकोर्ट की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता आदित्य अधिकारी ने कहा कि यह बर्खास्तगी आदेश केवल इस आधार पर था कि खेरा ने प्रोबेशन अवधि संतोषजनक रूप से पूर्ण नहीं की। यह निर्णय शिकायतों के आधार पर नहीं बल्कि समग्र कार्यप्रदर्शन की समीक्षा के आधार पर लिया गया था, और कोई विभागीय जांच आवश्यक नहीं थी।
उन्होंने स्पष्ट किया कि प्रोबेशन अवधि के दौरान सेवा रिकॉर्ड और नकारात्मक ACR को ध्यान में रखते हुए अधिकारी की उपयुक्तता का आकलन किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत लागू नहीं होते।
अदालत की टिप्पणी
मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति विवेक जैन की खंडपीठ ने कहा:
“यह नहीं कहा जा सकता कि यह कार्रवाई दंडात्मक थी… यह निर्णय केवल इस आधार पर लिया गया कि अधिकारी ने प्रोबेशन अवधि सफलतापूर्वक पूर्ण नहीं की।”
अदालत ने 2020 से 2023 के बीच की ACR रिपोर्टों का हवाला देते हुए बताया कि न्यायिक कार्य में रुचि की कमी, कमजोर निर्णय गुणवत्ता और अन्य कर्मचारियों के साथ व्यवहार में नकारात्मकता स्पष्ट रूप से झलकती है।
अंतिम निर्णय
अदालत ने खेरा की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया:
“नियम 11(ग) के अंतर्गत यह आदेश पूर्णतः वैधानिक है। याचिका में कोई दम नहीं है, अतः इसे खारिज किया जाता है।”