उपभोक्ता वादों को लोकतंत्र की मजबूती का आधार बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को कहा कि इन वादों को बहुगुणित रूप से बढ़ावा दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह सक्रिय नागरिकता और सहभागी शासन को प्रोत्साहित करते हैं।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश की पीठ ने कहा कि उपभोक्तावाद को सशक्त बनाना सामाजिक असमानताओं को समाप्त करने का सबसे प्रभावी तरीका है।
उपभोक्ता वाद: जनहित याचिका का ही स्वरूप
पीठ ने कहा, “उपभोक्ता वाद जनहित याचिका का एक रूप है, जो सक्रिय नागरिकता का निर्माण करता है और सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा देता है। सहभागी लोकतंत्र संविधान की मूल विशेषताओं में से एक है। शासन में भागीदारी का सिद्धांत न केवल एक संवैधानिक अधिकार है, बल्कि एक मानव अधिकार भी है। इसलिए लोकतंत्र की समृद्धि के लिए उपभोक्ता वादों को बहुगुणित रूप से बढ़ने देना अनिवार्य है।”
गांधीजी के विचारों का हवाला
सुप्रीम कोर्ट ने महात्मा गांधी के प्रसिद्ध कथन का उल्लेख करते हुए कहा, “एक ग्राहक हमारे परिसर में सबसे महत्वपूर्ण आगंतुक है। वह हम पर निर्भर नहीं है, बल्कि हम उस पर निर्भर हैं… हम उस पर उपकार नहीं कर रहे, बल्कि वह हमें सेवा करने का अवसर देकर हम पर उपकार कर रहा है।”
पीठ ने कहा कि गांधीजी ने उपभोक्तावाद को सत्य और धर्म के सिद्धांतों से जोड़कर एक उच्च स्तर तक पहुंचाया और इसे स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बना दिया। “1930 का दांडी मार्च इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जहां राजनीति, अर्थशास्त्र और सामाजिक चेतना को मिलाकर नमक सत्याग्रह के माध्यम से उपभोक्ता आंदोलन को एक नागरिक आंदोलन में बदल दिया गया।”
उपभोक्तावाद एक समग्र अवधारणा
न्यायालय ने कहा कि उपभोक्तावाद को केवल सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। “राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाजशास्त्र और पर्यावरण जैसे विषय उपभोक्तावाद के अभिन्न अंग हैं। इन पहलुओं को ध्यान में रखे बिना उपभोक्तावाद के वास्तविक प्रभाव को समझना संभव नहीं है।”
समानता के अधिकार से जुड़ा उपभोक्ता न्याय
पीठ ने कहा कि यदि वस्तुएं केवल समाज के एक विशेष वर्ग तक सीमित रह जाएं और बहुसंख्यक आबादी के लिए एक मृगतृष्णा बन जाएं, तो संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्राप्त समानता का अधिकार सक्रिय हो जाता है।
“यदि किसी उपभोक्ता को अनुचित भेदभाव या बाहरी कारणों के आधार पर उसका हक नहीं मिलता, तो यह असंवैधानिक होगा और इसे सख्ती से निपटाया जाना चाहिए। विशेषकर एक उभरते और विकासशील लोकतंत्र में, जहां मानव संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं और आकांक्षी युवा बहुसंख्यक हैं, उन्हें उनके अधिकारों से वंचित करना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है,” पीठ ने कहा।
उपभोक्ता संरक्षण कानून की कार्यान्वयन खामियों पर याचिका
न्यायालय की ये टिप्पणी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के क्रियान्वयन में खामियों को लेकर दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान आई। याचिका में कानून के प्रभावी कार्यान्वयन को लेकर गंभीर चिंताएं जताई गई थीं।
सुप्रीम कोर्ट के ये विचार स्पष्ट संकेत देते हैं कि उपभोक्ता अधिकारों की रक्षा केवल एक कानूनी दायित्व नहीं, बल्कि लोकतंत्र की बुनियादी आवश्यकताओं में से एक है।