राज्य सरकार के निर्धारित प्रारूप में जाति प्रमाणपत्र न देने पर चयन से वंचित किया जाना उचित: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि यदि कोई उम्मीदवार राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रारूप में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) प्रमाणपत्र प्रस्तुत नहीं करता है, तो उसे आरक्षित श्रेणी के तहत चयन प्रक्रिया से बाहर करना उचित है। न्यायालय ने मोहित कुमार की याचिका खारिज करते हुए किरण प्रजापति के पक्ष में दिए गए हाईकोर्ट के आदेश को पलटते हुए उत्तर प्रदेश सरकार की अपील स्वीकार कर ली।

यह निर्णय जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस मनमोहन की पीठ ने सिविल अपील संख्या 5233-5234 / 2025 में सुनाया।

मामला क्या था?

उत्तर प्रदेश पुलिस भर्ती एवं प्रोन्नति बोर्ड (UPPRPB) ने 24 फरवरी 2021 को वर्ष 2020-21 के लिए सब-इंस्पेक्टर, सिविल पुलिस व प्लाटून कमांडर आदि पदों पर भर्ती हेतु विज्ञापन जारी किया था। मोहित कुमार और किरण प्रजापति दोनों ने ओबीसी श्रेणी में आवेदन किया और परीक्षा में सम्मिलित हुए।

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मोहित को 313.84 अंक प्राप्त हुए, जो ओबीसी कट-ऑफ (305.542) से अधिक थे, पर सामान्य वर्ग के कट-ऑफ (316.11) से कम थे। वहीं किरण को 287 अंक प्राप्त हुए, जो ओबीसी के लिए निर्धारित न्यूनतम अंकों (285.92) से अधिक थे, पर सामान्य वर्ग के लिए अर्हक नहीं थे।

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हालांकि, दोनों ने जो ओबीसी प्रमाणपत्र जमा किए थे, वे केंद्र सरकार के नियुक्तियों हेतु निर्धारित प्रारूप में थे, न कि राज्य सरकार द्वारा अनिवार्य “प्रारूप-I” में। परिणामस्वरूप, उन्हें सामान्य श्रेणी में माना गया और चयन सूची में शामिल नहीं किया गया। दोनों की ओर से UPPRPB को किए गए अभ्यावेदनों को अस्वीकार कर दिया गया।

मोहित की याचिका हाईकोर्ट ने खारिज कर दी, लेकिन किरण के मामले में हाईकोर्ट ने UPPRPB को उसका प्रमाणपत्र स्वीकार करने का निर्देश दिया, जिसे राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।

कानूनी दलीलें

राज्य सरकार की ओर से प्रस्तुत किया गया कि भर्ती प्रक्रिया उत्तर प्रदेश सब-इंस्पेक्टर एवं इंस्पेक्टर (सिविल पुलिस) सेवा (संशोधित) नियमावली, 2015 और उत्तर प्रदेश सार्वजनिक सेवाएं (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों एवं पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम, 1994 के तहत संचालित थी। विज्ञापन की धारा 5.4(4) में स्पष्ट चेतावनी दी गई थी कि निर्धारित प्रारूप में प्रमाणपत्र न देने वाले अभ्यर्थियों को सामान्य श्रेणी में माना जाएगा।

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यह भी कहा गया कि केंद्र सरकार के प्रमाणपत्र में वह वित्तीय और संपत्ति संबंधी विवरण शामिल नहीं होता है जो राज्य सरकार की “क्रीमी लेयर” निर्धारण नीति के लिए आवश्यक है। ऐसे में UPPRPB के लिए मानकीकरण करना संभव नहीं होता।

वहीं उम्मीदवारों की ओर से दलील दी गई कि प्रमाणपत्र सक्षम तहसीलदार द्वारा जारी किए गए थे, जातीय स्थिति में कोई विवाद नहीं था, और केवल तकनीकी अंतर के कारण योग्यता को नकारा नहीं जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियाँ

न्यायालय ने माना कि प्रमाणपत्र के निर्धारित प्रारूप में प्रस्तुत करना केवल औपचारिकता नहीं, बल्कि अनिवार्य शर्त है। कोर्ट ने कहा:

“एक बार जब भर्ती प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है, तो सभी उम्मीदवारों को कानून के तहत समानता का अधिकार प्राप्त होता है। विभिन्न उम्मीदवारों के लिए अलग-अलग मापदंड नहीं अपनाए जा सकते।”

कोर्ट ने Registrar General, Calcutta High Court v. Shrinivas Prasad Shah (2013) निर्णय का हवाला देते हुए दोहराया कि आरक्षण का लाभ केवल तभी दिया जा सकता है जब वैध प्रमाणपत्र निर्धारित नियमों के अनुरूप हो।

अदालत ने यह भी कहा:

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“धारा 5.4(4) बिल्कुल स्पष्ट है। UPPRPB ने क्या मांगा और उसका अनुपालन न करने का क्या परिणाम होगा, यह पूरी तरह स्पष्ट था।”

कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि पूर्व में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए राहत के आदेश केवल प्रवेश स्तर पर याचिका खारिज करने से संबंधित थे और निर्णय के गुण-दोष पर आधारित नहीं थे, अतः वे बाध्यकारी नहीं हैं।

अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने मोहित कुमार की अपील खारिज कर दी और किरण प्रजापति के मामले में उत्तर प्रदेश सरकार की अपील स्वीकार कर ली। कोर्ट ने कहा:

“उपरोक्त कारणों से, मोहित और किरण किसी भी राहत के पात्र नहीं हैं।”

प्रकरण शीर्षक:

मोहित कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य, सिविल अपील सं. 5233/2025;

उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम किरण प्रजापति, सिविल अपील सं. 5234/2025।

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