सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फ़ैसले में स्पष्ट किया है कि किसी मृत महिला की विवाहित बेटी, यदि आर्थिक रूप से उस पर निर्भर नहीं थी, तो मोटर वाहन अधिनियम, 1988 के तहत आश्रयजनित मुआवज़े की हक़दार नहीं मानी जाएगी। हालांकि, अदालत ने मृत महिला की मां को आश्रित मानते हुए पहले से निरस्त किया गया मुआवज़ा बहाल कर दिया।
यह फ़ैसला जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस के. विनोद चंद्रन की पीठ ने दीप शिखा एवं अन्य बनाम नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड एवं अन्य मामले में सुनाया। यह मामला सड़क दुर्घटना में मृत महिला पारस शर्मा से जुड़ा था।
मामले की पृष्ठभूमि
26 जनवरी 2008 को पारस शर्मा की उस समय मृत्यु हो गई जब एक रोडवेज़ बस ने अचानक मोड़ लेते हुए उन्हें अपने पिछले पहिये के नीचे कुचल दिया। इसके बाद उनकी विवाहित बेटी (अपीलकर्ता संख्या 1) और वृद्ध मां (अपीलकर्ता संख्या 2) ने ₹54,30,740 का मुआवज़ा दावा करते हुए याचिका दायर की।

मोटर दुर्घटना दावा अधिकरण (Tribunal) ने 11 मई 2011 को दोनों अपीलकर्ताओं को ₹15,97,000 का मुआवज़ा 6% ब्याज के साथ देने का आदेश दिया, और बस चालक, मालिक व बीमा कंपनी को संयुक्त रूप से उत्तरदायी ठहराया।
बाद में बीमा कंपनी और अपीलकर्ताओं ने इस आदेश के विरुद्ध राजस्थान हाईकोर्ट का रुख किया। बीमा कंपनी ने तर्क दिया कि विवाहित बेटी को आश्रित नहीं माना जा सकता और वृद्ध मां कानूनी वारिस नहीं हैं। हाईकोर्ट ने बीमा कंपनी की अपील स्वीकार करते हुए बेटी का मुआवज़ा घटाकर ₹50,000 कर दिया और मां का दावा पूरी तरह निरस्त कर दिया।
कानूनी प्रश्न और पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में हाईकोर्ट के फ़ैसले को चुनौती दी और कहा कि दोनों ही मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थीं। मामले का मुख्य प्रश्न यह था कि क्या विवाहित बेटी और वृद्ध मां मुआवज़े की पात्र मानी जा सकती हैं।
बीमा कंपनी ने मंजुरी बेरा बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड [(2007) 10 SCC 634] के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि केवल वे ही मुआवज़ा पाने के पात्र हैं जो मृतक पर निर्भर हों।
सुप्रीम कोर्ट के अवलोकन
अदालत ने विवाहित बेटी के संबंध में कहा:
“एक बार बेटी का विवाह हो जाने के बाद सामान्य धारणा यही होती है कि वह अब अपने वैवाहिक घर की सदस्य है और उसे आर्थिक सहयोग वहीं से प्राप्त होता है, जब तक कि इसका विपरीत साक्ष्य प्रस्तुत न किया जाए।”
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि मोटर वाहन अधिनियम की धारा 166 और 168 के तहत आश्रयजनित मुआवज़े का दावा तभी स्वीकार किया जा सकता है जब वास्तविक आर्थिक निर्भरता सिद्ध की जाए। अपीलकर्ता संख्या 1 ऐसा सिद्ध नहीं कर सकीं, अतः उन्हें केवल धारा 140 के अंतर्गत ₹50,000 का सांविधिक मुआवज़ा ही प्राप्त होगा।
वहीं, अपीलकर्ता संख्या 2 यानी मृतका की मां के संबंध में न्यायालय ने माना कि वह लगभग 70 वर्ष की थीं, मृतका के साथ रहती थीं, उनकी कोई स्वतंत्र आय नहीं थी, और वे मृतका पर पूरी तरह निर्भर थीं।
अदालत ने कहा:
“बुज़ुर्ग माता-पिता का भरण-पोषण करना संतान का वैसा ही कर्तव्य है जैसा नाबालिग संतान के लिए माता-पिता का होता है।”
यह भी कहा गया कि भले ही दुर्घटना के समय आर्थिक निर्भरता पूरी तरह सिद्ध न हो, लेकिन भविष्य की निर्भरता की संभावना को नकारा नहीं जा सकता।
मुआवज़े की पुनर्गणना
सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड बनाम प्रणय सेठी [(2017) 16 SCC 680] और सरला वर्मा बनाम दिल्ली ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन [(2009) 6 SCC 121] के सिद्धांतों का अनुपालन करते हुए अपीलकर्ता संख्या 2 के लिए मुआवज़े की नई गणना की:
- मासिक आय: ₹24,406
- भविष्य की आय वृद्धि (15%): ₹3,660
- कुल मासिक आय (50% कटौती के बाद): ₹14,033
- गुणक (आयु 51-55): 11
- भविष्य की आय की हानि: ₹18,52,356
- अंतिम संस्कार व्यय: ₹15,000
- संपत्ति की हानि: ₹15,000
- परिजनों के consortium की हानि: ₹40,000
कुल मुआवज़ा: ₹19,22,356
न्यायालय का निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता संख्या 1 के संबंध में हाईकोर्ट का फ़ैसला बरकरार रखते हुए मुआवज़ा घटाए जाने को सही ठहराया। लेकिन अपीलकर्ता संख्या 2 के दावे को बहाल करते हुए ₹19,22,356 का मुआवज़ा देने का निर्देश दिया।
इस प्रकार, दोनों अपीलें आंशिक रूप से स्वीकार कर निष्पादन के निर्देश दिए गए।