सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी बालू खनन की ई-नीलामी सूचना को रद्द कर दिया गया था। अदालत ने कहा कि अनियंत्रित खनन नदी तंत्र को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाता है और इसे लेकर ‘शून्य सहिष्णुता’ की नीति अपनाई जानी चाहिए।
न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने राज्य सरकार और अन्य पक्षों की अपील खारिज करते हुए कहा कि एनजीटी का फरवरी 2023 का निर्णय सही था। कोर्ट ने पर्यावरणीय नियमों के सख्त अनुपालन की आवश्यकता को दोहराते हुए कहा कि बालू खनन की अनुमति देने से पहले वैध जिला सर्वेक्षण रिपोर्ट (DSR) तैयार किया जाना अनिवार्य है।
न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने 34 पृष्ठों के फैसले में लिखा, “हम बालू खनन को नियंत्रित करने वाले कानून और नियमों को स्पष्ट रूप से बरकरार रखते हैं। अनधिकृत गतिविधियों के प्रति शून्य सहिष्णुता आवश्यक है। इन नियमों का कड़ाई से पालन गैर-मोलभाव योग्य है।”
अदालत ने कहा कि अवैध बालू खनन से प्राकृतिक नदी प्रवाह बाधित होता है, कटाव और निवास स्थलों का नुकसान होता है तथा जल गुणवत्ता प्रभावित होती है, जो जैव विविधता और मानवीय सुरक्षा दोनों के लिए खतरा बन जाता है।
पीठ ने यह भी रेखांकित किया कि अवैध बालू व्यापार अक्सर संगठित अपराध के साये में संचालित होता है, जिससे कानून का शासन और प्रशासनिक ढांचा कमजोर पड़ता है। अदालत ने कहा कि प्रभावी नियंत्रण के लिए कड़े मानदंड, सख्त नीति, कड़ी निगरानी और शीघ्र उत्तरदायित्व जरूरी हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि यदि कोई परियोजना B2 श्रेणी में आती है—जहां लीज क्षेत्र पांच हेक्टेयर तक होता है—तो पर्यावरणीय मंजूरी के लिए केवल प्रारंभिक DSR पर भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसी मंजूरी के लिए अंतिम रूप से स्वीकृत DSR आवश्यक है जिसे जिला स्तरीय विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (DEAC) या जिला स्तरीय पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्राधिकरण (DEIAA) के समक्ष प्रस्तुत किया जाए।
हालांकि कोर्ट ने यह भी स्वीकार किया कि बालू खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना व्यावहारिक नहीं है। न्यायालय ने कहा, “आगे का रास्ता सतत विकास और प्रभावी नियंत्रण का है। विकास समाज के लिए आवश्यक हो सकता है, लेकिन इसे पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देते हुए संतुलित दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ाया जाना चाहिए।”
फैसले में यह भी निर्देश दिया गया कि DSR को अंतिम रूप देने से पहले उसे सार्वजनिक टिप्पणियों के लिए 21 दिनों तक उपलब्ध कराया जाए और छह महीने के भीतर इसे अंतिम रूप दे दिया जाए। यह रिपोर्ट पांच वर्षों के लिए वैध होगी और इसके बाद नई रिपोर्ट तैयार की जानी अनिवार्य होगी।
कोर्ट ने कहा, “पारिस्थितिकी और पर्यावरण की स्थिति तेजी से बदल रही है। पांच साल पहले तैयार रिपोर्ट वर्तमान परिस्थितियों का सटीक प्रतिबिंब नहीं हो सकती।”