बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने जलगांव निवासी अधिवक्ता केदार किशोर भुसारी के खिलाफ दर्ज FIR को रद्द कर दिया है, जिसमें उन पर ‘भंगी’ और ‘मेहतर’ जैसे शब्दों का उपयोग कर एक वीडियो के माध्यम से नगर क्षेत्र की गंदगी और सूअर की समस्या को उजागर करने का आरोप था। न्यायालय ने माना कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आवश्यक विधिक तत्व इस मामले में पूरे नहीं होते।
न्यायमूर्ति विभा कंकनवाड़ी और न्यायमूर्ति संजय ए. देशमुख की खंडपीठ ने 7 अगस्त 2023 को दर्ज FIR को निरस्त करते हुए यह निर्णय सुनाया। यह FIR अनुसूचित जातियों पर सार्वजनिक स्थान में अपमानजनक टिप्पणी करने के आरोप में अधिनियम की धारा 3(1)(r) और 3(1)(s) के अंतर्गत दर्ज की गई थी।
पृष्ठभूमि:
42 वर्षीय भुसारी ने जलगांव के बलिराम पेठ क्षेत्र में गंदगी और सूअर की समस्या को उजागर करते हुए एक वीडियो रिकॉर्ड कर नगर निगम के सहायक आयुक्त को भेजा था। यह वीडियो बाद में व्हाट्सएप पर साझा हुआ, जिसे देखकर एक व्यक्ति ने आपत्ति जताते हुए FIR दर्ज कराई, जिसमें कहा गया कि वीडियो में प्रयुक्त शब्द अपमानजनक हैं।
न्यायालय की विश्लेषणात्मक टिप्पणी:
हाईकोर्ट ने अत्याचार अधिनियम के प्रावधानों का गहराई से परीक्षण किया और कहा कि इस मामले में किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने का कोई प्रमाण नहीं है।
न्यायालय ने कहा, “ये शब्द, चाहे आपत्तिजनक माने भी जाएं, किसी स्थान की स्थिति के लिए कहे गए थे, न कि किसी व्यक्ति या समुदाय को नीचा दिखाने के लिए।”
खंडपीठ ने स्पष्ट किया कि धारा 3(1)(r) के तहत किसी अनुसूचित जाति/जनजाति के व्यक्ति का जानबूझकर अपमान सार्वजनिक स्थल पर होना आवश्यक है, और धारा 3(1)(s) में जातिसूचक गाली किसी विशिष्ट व्यक्ति को सार्वजनिक रूप में दी जानी चाहिए। कोर्ट ने कहा, “इनमें से कोई भी शर्त इस मामले में पूरी नहीं होती।”
परिपत्र का कानूनी प्रभाव नहीं:
प्रार्थी ने महाराष्ट्र सरकार के 16 अप्रैल 2003 के एक परिपत्र का हवाला दिया जिसमें ‘भंगी’ शब्द के प्रयोग से बचने और इसके स्थान पर ‘रुखी’ या ‘वाल्मीकि’ जैसे शब्दों के उपयोग की सिफारिश की गई थी। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ऐसे परिपत्र केवल प्रशासनिक निर्देश होते हैं और उनका कोई दंडात्मक प्रभाव नहीं होता।
न्यायालय ने कहा, “इस परिपत्र का उद्देश्य सीमित है और यह संविधान में प्रयुक्त शब्दों का स्थान लेने की मंशा नहीं रखता।”
उद्देश्य था नागरिक समस्या उजागर करना, अपमान नहीं:
कोर्ट ने कहा कि वीडियो से किसी व्यक्ति को लक्षित कर अपमानित करने का कोई उद्देश्य नहीं था। गवाहों ने पुष्टि की कि वीडियो उन्हें केवल फॉरवर्ड किए जाने के बाद ही मिला। भुसारी ने यह वीडियो केवल नगर निगम अधिकारी को भेजा था।
कोर्ट ने इसे “व्हाट्सएप फॉरवर्ड के दुष्परिणामों का एक और उदाहरण” करार दिया। सहायक आयुक्त ने बिना जांचे वीडियो को स्वास्थ्य विभाग समूह में भेजा, और बाद में आपत्तियां मिलने पर उसे हटा दिया।
निष्कर्ष:
कोर्ट ने माना कि भुसारी ने केवल एक नागरिक मुद्दे को उठाने के लिए वीडियो बनाया था, न कि किसी को अपमानित करने के लिए। अपराध सिद्ध करने के लिए आवश्यक आपराधिक मनोभाव (mens rea) और ठोस साक्ष्य के अभाव में, कोर्ट ने FIR को रद्द कर दिया और कहा कि केवल आरोप भर से आपराधिक कानून का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।