सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को उस याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया जिसमें केंद्र सरकार को आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए परिसीमन प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश देने की मांग की गई थी।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह की पीठ ने याचिकाकर्ता के. पुरुषोत्तम रेड्डी की याचिका पर सुनवाई की, जिसमें कहा गया कि केवल जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश में परिसीमन करना और आंध्र प्रदेश व तेलंगाना को इससे बाहर रखना संविधान के अनुच्छेदों का उल्लंघन है।
याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि उन्हें जम्मू-कश्मीर के समानता के आधार पर अधिकार मिलना चाहिए और आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना में भी परिसीमन किया जाना चाहिए।
केंद्र सरकार की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के. एम. नटराज ने दलील दी कि आंध्र प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम की धारा 26 के अनुसार, परिसीमन की प्रक्रिया केवल 2026 की जनगणना के बाद ही शुरू की जा सकती है। उन्होंने कहा, “यह एक विशाल प्रक्रिया है, जिसे एक झटके में पूरा नहीं किया जा सकता।”
नटराज ने यह भी कहा कि जम्मू-कश्मीर को एक केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण परिसीमन प्रक्रिया में शामिल किया गया था, और इसे राज्यों की स्थिति से तुलना नहीं की जा सकती।
इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने आपत्ति जताई और कहा कि पूर्वोत्तर राज्यों — जैसे असम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और नागालैंड — को तो परिसीमन अधिसूचना में शामिल किया गया था, जबकि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को छोड़ दिया गया, जबकि सभी राज्य संविधान के अनुच्छेद 170 के अधीन आते हैं।
पीठ ने पूछा कि क्या याचिकाकर्ता का तर्क यह है कि जब भी केंद्र सरकार परिसीमन अधिनियम के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करे, तो वह सभी राज्यों पर समान रूप से लागू होनी चाहिए। इस पर वकील ने जवाब दिया कि परिसीमन अधिसूचना के संदर्भ में “राज्य” में केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल होने चाहिए, जिसका उल्लेख परिसीमन अधिनियम की धारा 2(एफ) में है।
उन्होंने आगे कहा, “आंध्र प्रदेश और तेलंगाना को, जो जम्मू-कश्मीर की पुनर्गठन अधिसूचना से करीब पांच साल पहले अस्तित्व में आए, परिसीमन से बाहर रखा गया। इसके बाद पूर्वोत्तर राज्यों को भी हटा दिया गया। लेकिन उनके बहिष्कार का कारण अनुच्छेद 170 नहीं था। मैं यह कह रहा हूं कि उनका बाहर किया जाना गलत था।”