आरोपियों को बिना निर्णय लिखे बरी करने वाले सिविल जज की बर्खास्तगी को मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने सही ठहराया

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने पूर्व सिविल जज महेन्द्र सिंह तारम की सेवा समाप्ति को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति विवेक जैन की खंडपीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता पर लगे आरोप “गंभीर कदाचार” की श्रेणी में आते हैं और ऐसे मामलों में बर्खास्तगी का दंड उचित है।

प्रकरण की पृष्ठभूमि

महेन्द्र सिंह तारम को 29 जुलाई 2003 को सिविल जज क्लास-2 के रूप में नियुक्त किया गया था। 4 दिसंबर 2012 को जिला न्यायाधीश (निरीक्षण एवं सतर्कता), जबलपुर ज़ोन द्वारा निवास, जिला मंडला में एक आकस्मिक निरीक्षण किया गया। निरीक्षण में यह सामने आया कि उन्होंने कई आपराधिक मामलों में अभियुक्तों को बिना निर्णय लिखे बरी किया और आदेश पत्र भी तैयार नहीं किए।

विभागीय जांच और आरोप

11 दिसंबर 2012 को कारण बताओ नोटिस और आरोप पत्र जारी किया गया, जिसके उत्तर में याचिकाकर्ता ने कार्यभार और पारिवारिक जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए भूल को “बोना फाइड” बताते हुए क्षमा याचना की।

जांच अधिकारी ने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्ष दिया:

“क्रिमिनल केस नंबर 87/2006 (राज्य बनाम कृष्ण कुमार) में, आरोपीगण को 26.11.2012 को आदेश पत्र के आधार पर बरी कर दिया गया, जबकि किसी भी प्रकार का निर्णय (जजमेंट) लिखा नहीं गया था…”

“क्रिमिनल केस नंबर 471/2006 में दिनांक 30.11.2012 को निर्णय दर्शाया गया, लेकिन वास्तव में कोई निर्णय लिखा ही नहीं गया।”

“क्रिमिनल केस नंबर 216/2006 में आरोपीगण को 22.11.2012 को बरी कर दिया गया लेकिन निर्णय तैयार नहीं किया गया।”

“जांच अधिकारी ने निष्कर्ष निकाला कि याचिकाकर्ता द्वारा निर्णय लिखे बिना सुनाया जाना और आदेश पत्रों के बिना मामलों को स्थगित करना ‘गंभीर कदाचार’ के अंतर्गत आता है।”

इन निष्कर्षों के आधार पर मध्यप्रदेश हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने सेवा समाप्ति की अनुशंसा की, जिसे राज्य सरकार ने दिनांक 02.09.2014 को आदेशित कर दिया।

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याचिकाकर्ता की दलीलें

याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि इसी प्रकार की लापरवाही एक अन्य न्यायिक अधिकारी श्री सिद्धार्थ शर्मा द्वारा की गई थी, जिनके विरुद्ध केवल दो वेतनवृद्धियाँ रोकी गईं। उन्होंने समानता का दावा किया और अनुच्छेद 14 तथा 16 के उल्लंघन की बात कही।

प्रतिवादियों का पक्ष

उत्तरदाताओं ने दलील दी:

“श्री सिद्धार्थ शर्मा और याचिकाकर्ता श्री महेन्द्र सिंह तारम के विरुद्ध जांच अलग-अलग समय पर और पूरी तरह असंबंधित परिस्थितियों में हुई थी।”

“श्री तारम के विरुद्ध सभी आरोप आपराधिक मामलों में अभियुक्तों को बिना निर्णय लिखे बरी करने से संबंधित थे।”

“जब तक यह सिद्ध न हो कि लगाया गया दंड अत्यधिक और चौंकाने वाला है, तब तक सेवा-नियोजक द्वारा लिए गए निर्णय में न्यायालय हस्तक्षेप नहीं कर सकता।”

(संदर्भ: सुप्रीम कोर्ट द्वारा State of Tamil Nadu v. M. Mangayarkarasi, (2019) 15 SCC 515)

कोर्ट का निर्णय

अदालत ने कहा:

“याचिकाकर्ता एक न्यायिक अधिकारी के रूप में पूर्ण ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा बनाए रखने में विफल रहे। याचिकाकर्ता का यह आचरण एक न्यायिक अधिकारी के लिए अशोभनीय है और मध्यप्रदेश सिविल सेवा (आचरण) नियम, 1965 के नियम 3 के अंतर्गत गंभीर कदाचार की श्रेणी में आता है।”

खंडपीठ ने यह भी कहा कि:

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“न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र सीमित है और जब तक दंड पूर्णतः असंगत न हो, न्यायालय को अनुशासनात्मक प्राधिकारी के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”
(संदर्भ: B.C. Chaturvedi बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, (1995) 6 SCC 749)

कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि श्री सिद्धार्थ शर्मा का मामला सिविल प्रकृति का था और परिस्थितियाँ भिन्न थीं, अतः समानता का दावा अस्वीकृत किया जाता है।

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