जम्मू और कश्मीर तथा लद्दाख हाईकोर्ट, श्रीनगर पीठ ने जम्मू-कश्मीर हॉर्टिकल्चर प्रोड्यूस मार्केटिंग एंड प्रोसेसिंग कॉर्पोरेशन द्वारा दायर अपील को खारिज कर दिया है। यह अपील उस आदेश को चुनौती देने के लिए दायर की गई थी जिसमें एकल पीठ ने कुछ कर्मचारियों को सेवा से दूर रखे जाने की मध्यावधि अवधि के लिए वेतन और आनुषंगिक लाभ जारी करने का निर्देश दिया था।
न्यायमूर्ति रजनीश ओसवाल और न्यायमूर्ति मोहम्मद यूसुफ वानी की खंडपीठ ने 11 मई 2023 को SWP नंबर 2662/2013 में पारित एकल पीठ के निर्णय को बरकरार रखते हुए कहा कि जब कर्मचारी को नियोक्ता के कार्य या लापरवाही के कारण सेवा से दूर रखा जाता है, तब ‘नो वर्क नो पे’ का सिद्धांत लागू नहीं होता।
मामला पृष्ठभूमि
प्रतिवादी कर्मचारी, जो कॉर्पोरेशन के पूर्व कर्मचारी थे, ने सरकार द्वारा बनाए गए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) के अंतर्गत स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का विकल्प चुना था। इस योजना में स्वीकृति के साठ दिनों के भीतर लाभों का भुगतान अनिवार्य किया गया था। यद्यपि 10 अप्रैल 2013 से उनकी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति को स्वीकृत कर लिया गया था (जिसे 17 मई 2013 के आदेश द्वारा औपचारिक रूप दिया गया), परंतु उनके देय भुगतान नहीं किए गए।
इसलिए प्रतिवादियों ने वेतन और अन्य लाभों के भुगतान हेतु एक याचिका दायर की, जिसमें कॉर्पोरेशन के प्रबंधन के 26 अगस्त 2013 के पत्र में निर्दिष्ट राशि के अनुसार भुगतान की मांग की गई थी। बाद में, उन्होंने अपनी याचिका में संशोधन कर उस मध्यावधि अवधि का वेतन भी मांगा जब वे सेवा से बाहर रहे।
कॉर्पोरेशन ने तर्क दिया कि ‘नो वर्क नो पे’ सिद्धांत के अनुसार, जब कोई सेवा प्रदान नहीं की गई हो तो उस अवधि के लिए वेतन देय नहीं होता। इसके विपरीत, प्रतिवादियों ने कहा कि उनका सेवा से बाहर रहना केवल कॉर्पोरेशन की विफलता के कारण था, न कि उनकी किसी गलती के कारण।
पक्षकारों के तर्क
अपीलकर्ता कॉर्पोरेशन की ओर से अधिवक्ता श्री फहीम निसार शाह ने प्रस्तुत किया कि एकल न्यायपीठ ने उस अवधि के लिए वेतन भुगतान का निर्देश देकर त्रुटि की है, जब प्रतिवादियों ने कोई कार्य नहीं किया था।
दूसरी ओर, प्रतिवादियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एम. वाई. भट ने तर्क दिया कि कर्मचारियों को उस परिस्थिति में कॉर्पोरेशन की वचनभंगता के कारण फंसाया गया था। कॉर्पोरेशन द्वारा स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लाभों का भुगतान न करने के कारण उन्हें सेवा से बाहर रहना पड़ा, जबकि वे कार्य करने के लिए सदैव तैयार थे। केवल न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ही वे पुनः कार्यभार ग्रहण कर सके।
न्यायालय का विश्लेषण
न्यायालय ने उल्लेख किया कि सरकार की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना के क्लॉज 5(iv) के तहत साठ दिनों के भीतर भुगतान अनिवार्य था। न्यायालय ने पाया कि अपीलकर्ता की निष्क्रियता के कारण प्रतिवादियों का बकाया भुगतान निर्धारित समय में नहीं किया गया।
न्यायालय ने यह भी दर्ज किया कि प्रतिवादी कर्मचारी याचिका दाखिल करने के बाद ही सेवा में पुनः लिए गए थे और विवाद केवल उस मध्यावधि अवधि के वेतन के अधिकार को लेकर था।
महत्वपूर्ण रूप से, पीठ ने कहा कि ‘नो वर्क नो पे’ सिद्धांत केवल उसी स्थिति में लागू होता है जब कर्मचारी स्वयं के कार्य या लापरवाही के कारण सेवा से अनुपस्थित रहता है। जब कर्मचारी को नियोक्ता के कार्य या चूक के कारण सेवा से दूर रखा जाए, तो वेतन से इनकार नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने अपने निष्कर्षों के समर्थन में सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों —
- कर्नाटका हाउसिंग बोर्ड बनाम सी. मुद्धैया, (2007) 7 SCC 689,
- जे. एन. श्रीवास्तव बनाम भारत संघ, AIR 1999 SC 1571,
- और भारत संघ बनाम के. वी. जंकीरमन, AIR (SCW) 1991 2276 —
का संदर्भ भी दिया।
निर्णय
खंडपीठ ने यह निष्कर्ष निकाला कि एकल न्यायपीठ का निर्णय विधिसम्मत था और अपील को खारिज करते हुए कहा:
“प्रतिवादियों को उनके स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद प्राधिकरणों द्वारा सेवा से दूर रखा गया था, अतः वे मध्यावधि अवधि के वेतन के पात्र हैं।”
न्यायालय ने एकल न्यायपीठ के निर्णय को “अच्छी तरह से सोच-विचार कर और स्पष्ट” बताया और यह निर्देश दिया कि पक्षकारों के बीच किसी भी प्रकार की लागत नहीं लगाई जाएगी।