केरल हाईकोर्ट ने Crl. Rev. Pet. No. 1121 of 2024 में ट्रायल कोर्ट और अपीलीय अदालत के उन फैसलों को बरकरार रखा है, जिनके तहत तलाकशुदा पत्नी को ₹30,000 प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण प्रदान किया गया था, भले ही उसके और पति के बीच भरण-पोषण के अधिकार को छोड़ने का एक समझौता मौजूद था।
जस्टिस ए. बधरुद्दीन ने यह निर्णय 10 अप्रैल 2025 को सुनाया, और पति द्वारा ट्रायल कोर्ट (प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट-IV (मोबाइल), तिरुवनंतपुरम) तथा द्वितीय अपर जिला न्यायालय, तिरुवनंतपुरम के आदेशों को चुनौती देने वाली पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया।
पृष्ठभूमि:
याचिकाकर्ता (पत्नी) ने घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम, 2005 की धारा 20 के तहत विभिन्न राहतों के लिए ट्रायल कोर्ट का रुख किया था, जिसमें धारा 23 के तहत अंतरिम भरण-पोषण की मांग भी शामिल थी। दोनों पक्षों का विवाह 2018 में समाप्त हो गया था। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि उसे घरेलू हिंसा का शिकार बनाया गया, 301 सोने के गहनों और ₹10 लाख नकद लाने के लिए मजबूर किया गया, और उसे भरण-पोषण के साधनों से वंचित कर दिया गया। उसने दावा किया कि प्रतिवादी (पति), जो पेशे से पायलट है, ₹15 लाख प्रति माह से अधिक की आय अर्जित करता है।
प्रतिवादी ने दावा का विरोध किया और पक्षों के बीच 28.10.2017 को एक नोटरी पब्लिक के समक्ष संपादित (Annexure A2) एक समझौते का हवाला दिया, जिसमें याचिकाकर्ता ने कथित तौर पर अपने भरण-पोषण के अधिकार को त्याग दिया था। इसके अतिरिक्त, प्रतिवादी ने यह भी दावा किया कि याचिकाकर्ता एक योग केंद्र चलाकर ₹2 लाख प्रति माह स्वतंत्र आय अर्जित कर रही थी।
अदालत का विश्लेषण:
ट्रायल कोर्ट ने याचिकाकर्ता की स्वतंत्र आय के संबंध में कोई ठोस साक्ष्य न मिलने के कारण इस दावे को अस्वीकार कर दिया। प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत संपत्ति और देनदारियों के विवरण में उसके ₹8,35,000 प्रति माह के सकल वेतन का उल्लेख होने के आधार पर, ट्रायल कोर्ट ने ₹30,000 प्रति माह अंतरिम भरण-पोषण प्रदान किया। इस आदेश की पुष्टि अपीलीय अदालत ने भी की।
जस्टिस बधरुद्दीन ने मुख्यतः यह विचार किया कि क्या पत्नी द्वारा भरण-पोषण के अधिकार को छोड़ने का कोई समझौता उसे भरण-पोषण की मांग करने से रोक सकता है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के विभिन्न निर्णयों का हवाला देते हुए, जैसे भूपिंदर सिंह बनाम दलजीत कौर [(1979) 1 SCC 352], हारून बनाम सैना बहा [(1992) 1 KLT 868], और बाई ताहिरा बनाम अली हुसैन फिदाली चोथिया [(1979) 2 SCC 316], कोर्ट ने कहा कि भरण-पोषण के वैधानिक अधिकार को छोड़ने का कोई भी समझौता सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है और अमान्य है।
कोर्ट ने जोर देते हुए कहा:
“पत्नी द्वारा भरण-पोषण के अधिकार का त्याग या परित्याग, पत्नी या बच्चों द्वारा भरण-पोषण के दावे को समाप्त नहीं कर सकता।”
इसके अतिरिक्त, राजनेश बनाम नेहा [AIR 2021 SC 569] के संदर्भ में, कोर्ट ने दोहराया कि अंतरिम भरण-पोषण वित्तीय क्षमता, यथोचित आवश्यकताओं और जीवन स्तर के आधार पर तय किया जाना चाहिए, और दोनों पक्षों द्वारा पेश किए गए अप्रमाणित आय दावों पर निर्भर नहीं होना चाहिए।
Annexure A2 (समझौते) के बारे में, कोर्ट ने पाया कि इस दस्तावेज़ में भरण-पोषण के किसी भुगतान का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। अतः केवल उस समझौते के आधार पर याचिकाकर्ता के दावे को नकारा नहीं जा सकता।
साथ ही, जुवरिया अब्दुल मजीद पाटनी बनाम अतीफ इकबाल मंसूरी [(2014) 10 SCC 736] के आधार पर, कोर्ट ने कहा कि विवाह विच्छेद से पहले हुए घरेलू हिंसा के कृत्य के आधार पर तलाकशुदा पत्नी को घरेलू हिंसा अधिनियम के तहत राहत प्राप्त करने का अधिकार है।
निर्णय:
केरल हाईकोर्ट ने पुनरीक्षण याचिका खारिज कर दी और प्रतिवादी को निर्देश दिया कि वह 30 दिनों के भीतर पूरा बकाया अंतरिम भरण-पोषण चुकता करे, अन्यथा याचिकाकर्ता को विधिक उपायों द्वारा वसूली के लिए स्वतंत्र माना जाएगा।
कोर्ट द्वारा पूर्व में दी गई अंतरिम स्थगन को समाप्त कर दिया गया और आदेश की प्रति को आगे की कार्यवाही के लिए क्षेत्राधिकार न्यायालय को भेजने के निर्देश दिए गए।