सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि किसी अपराध का संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश केवल इस आधार पर अमान्य नहीं ठहराया जा सकता कि उसमें विस्तृत कारण नहीं दिए गए हैं। यदि आदेश से यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने केस रिकॉर्ड पर विचार कर प्रथम दृष्टया मामला पाया है, तो वह विधिसम्मत माना जाएगा। कोर्ट ने झारखंड हाईकोर्ट के उस निर्णय को निरस्त कर दिया, जिसमें एससी/एसटी अधिनियम के तहत दर्ज मामले को पुनर्विचार के लिए ट्रायल कोर्ट को भेजा गया था। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दिनांक 13.06.2019 को पारित संज्ञान आदेश विधिक रूप से सही था।
पृष्ठभूमि
यह मामला ज्योति बेक (प्रतिकृति संख्या 2) और प्रमिला देवी (अपीलकर्ता संख्या 1) व उनके दो बच्चों के बीच पारिवारिक विवाद से संबंधित है। ज्योति बेक ने दावा किया कि वह स्वर्गीय विष्णु साहू की दूसरी पत्नी हैं, जिन्होंने स्वयं को अविवाहित बताकर वर्ष 1990 में उनसे विवाह किया। उन्होंने कहा कि उनके तीन बच्चे हैं और वे 26 वर्षों तक साथ रहीं, लेकिन बाद में उन्हें उस मकान से बेदखल कर दिया गया जो उनके नाम पर खरीदी गई ज़मीन पर बना था।
उनकी शिकायत पर वर्ष 2016 में एफआईआर संख्या 385 दर्ज हुई, जिसमें IPC की धारा 498A, 406, 420 और एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(iv) लगाई गई। जांच के पश्चात पुलिस ने चार्जशीट संख्या 80/2019 दायर की, जिस पर 13.06.2019 को अतिरिक्त न्यायिक आयुक्त ने संज्ञान लिया।

हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही
अपीलकर्ताओं ने झारखंड हाईकोर्ट में क्रिमिनल मिसलेनियस पिटीशन संख्या 235/2017 के माध्यम से एफआईआर को रद्द कराने का अनुरोध किया था, जिसे बाद में संज्ञान आदेश को चुनौती देने हेतु संशोधित किया गया। हाईकोर्ट ने 09.03.2022 को पारित आदेश में यह कहते हुए संज्ञान आदेश निरस्त कर दिया कि उसमें प्रथम दृष्टया सामग्री का उल्लेख नहीं था और मामले को पुनर्विचार हेतु ट्रायल कोर्ट को भेज दिया।
सुप्रीम कोर्ट में अपीलकर्ताओं ने केवल हाईकोर्ट के पुनर्विचार आदेश को चुनौती दी, एफआईआर को नहीं। उन्होंने तर्क दिया कि हाईकोर्ट को संपूर्ण कार्यवाही रद्द करनी चाहिए थी, क्योंकि कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता।
सुप्रीम कोर्ट के निष्कर्ष
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसनुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने माना कि हाईकोर्ट का आदेश त्रुटिपूर्ण था। कोर्ट ने कहा:
“13.06.2019 के संज्ञान आदेश से स्पष्ट है कि अतिरिक्त न्यायिक आयुक्त ने ‘केस डायरी और केस रिकॉर्ड’ का अवलोकन किया और एक प्रथम दृष्टया मामला पाया…”
कोर्ट ने भूषण कुमार बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली), (2012) 5 SCC 424 तथा कांति भद्र शाह बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, (2000) 1 SCC 722 जैसे निर्णयों का हवाला देते हुए कहा:
“इस कोर्ट ने बार-बार कहा है कि धारा 204 के तहत समन आदेश हेतु स्पष्ट कारण देने की आवश्यकता नहीं है…”
निर्णय में यह भी स्पष्ट किया गया कि संज्ञान लेते समय मजिस्ट्रेट को साक्ष्यों की सत्यता पर विचार नहीं करना होता, केवल यह देखना होता है कि क्या कोई ऐसा तथ्य मौजूद है जो अपराध की ओर संकेत करता है:
“इस समय न्यायालय को उस सामग्री की सत्यता पर नहीं जाना होता। इसी कारण कानून में ट्रायल की व्यवस्था की गई है…”
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि रिकॉर्ड में जो चार्जशीट है, वह आरोपों को समर्थन प्रदान करती है और अपीलकर्ताओं ने यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा कि जांच में कोई सामग्री प्राप्त नहीं हुई।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए झारखंड हाईकोर्ट के पुनर्विचार आदेश को पूरी तरह से निरस्त कर दिया। कोर्ट ने निर्देश दिया कि अपीलकर्ता संबंधित अतिरिक्त न्यायिक आयुक्त के समक्ष उपस्थित हों, जहां ट्रायल विधिक प्रक्रिया के अनुसार आगे बढ़ेगा। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सभी कानूनी व तथ्यात्मक मुद्दे, जैसे चार्ज का गठन या डिस्चार्ज, उचित चरण पर संबंधित पक्षों द्वारा उठाए जा सकते हैं।
केस का शीर्षक: प्रमिला देवी एवं अन्य बनाम राज्य झारखंड एवं अन्य, क्रिमिनल अपील संख्या 2551/2024.