सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 351) के तहत आरोपी के बयान दर्ज करने की अनिवार्यता को दोहराते हुए कहा कि यदि अभियोजन पक्ष आरोपी से प्रमुख साक्ष्य का सामना नहीं कराता है, तो वह साक्ष्य न्यायिक दृष्टि से अमान्य हो जाता है और इससे अदालत की भूमिका सीमित हो जाती है। अदालत ने आरोपी हसीम शेख की बरी किए जाने के खिलाफ दायर आपराधिक अपीलों को खारिज कर दिया। आरोपी पर अपनी पत्नी और तीन बेटियों को जलाकर मारने का आरोप था।
यह फैसला जस्टिस अभय एस. ओका, जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने Aejaz Ahmad Sheikh vs State of Uttar Pradesh & Anr., क्रिमिनल अपील संख्या 2142/2017 में सुनाया।
मामला क्या था
यह घटना 26 दिसंबर 2008 की है जब आरोपी हसीम शेख की पत्नी अमीना और उनकी तीन बेटियाँ—नजमा, फातिमा और सलमा—जलकर गंभीर रूप से घायल हो गईं। नजमा की मौके पर ही मृत्यु हो गई और बाकी की कुछ दिनों में अस्पताल में मौत हो गई। आरोपी का चचेरा भाई असलम भी झुलस गया था और 2 जनवरी 2009 को उसकी मृत्यु हो गई। मृतका अमीना के भाई एजाज़ अहमद शेख (PW-1) ने उसी दिन एफआईआर दर्ज कराई, और भारतीय दंड संहिता की धारा 302, 307, और 120बी के तहत आरोप तय हुए।

ट्रायल कोर्ट ने हसीम शेख को दोषी ठहराते हुए फांसी की सजा सुनाई और मामले को “दुर्लभतम मामलों” की श्रेणी में माना। परंतु इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आरोपी को बरी कर दिया और मृत्युदंड की पुष्टि करने से इनकार कर दिया। इसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दाखिल हुई।
प्रमुख कानूनी प्रश्न और पक्षकारों की दलीलें
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या गंभीर अपराध और उपलब्ध सबूतों—जैसे मृत्युपूर्व कथन और चश्मदीद गवाहों की गवाही—के आधार पर हाईकोर्ट द्वारा आरोपी को बरी करने का निर्णय पलटा जा सकता है?
पीड़िता के भाई की ओर से नियुक्त अमिकस क्यूरी श्री शुभ्रांशु पाढ़ी ने तर्क दिया कि अमीना और फातिमा के मृत्युपूर्व कथन विश्वसनीय थे और तहसीलदार (PW-11) द्वारा उचित प्रक्रिया से रिकॉर्ड किए गए थे। उन्होंने आरोपी के बेटे (PW-5) की गवाही की विश्वसनीयता पर भी ज़ोर दिया।
राज्य सरकार ने भी शिकायतकर्ता के पक्ष का समर्थन किया और बरी किए जाने को पलटने का अनुरोध किया।
वहीं, आरोपी की ओर से यह दलील दी गई कि मृत्युपूर्व कथन जैसे महत्वपूर्ण साक्ष्य आरोपी को धारा 313 के तहत पूछे ही नहीं गए, जिससे निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार प्रभावित हुआ। उन्होंने राज कुमार बनाम राज्य (एनसीटी दिल्ली), (2023) 17 SCC 95 का हवाला दिया।
न्यायालय की विश्लेषणात्मक टिप्पणियाँ
बाल गवाह (PW-5) पर:
न्यायालय ने पाया कि ट्रायल जज ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के तहत नाबालिग गवाह की योग्यता की प्रारंभिक परीक्षा नहीं की। उसके समझने और जवाब देने की क्षमता को परखने के लिए कोई प्रश्न दर्ज नहीं किया गया और बिना सावधानीपूर्वक प्रक्रिया के शपथ दिला दी गई। साथ ही, उसकी गवाही में उसके पहले के बयानों (धारा 161 के तहत) से भिन्नताएं पाई गईं।
मृत्युपूर्व कथनों पर:
अदालत ने देखा कि तहसीलदार द्वारा दर्ज किए गए मृत्युपूर्व कथन पीड़ितों को पढ़कर सुनाए नहीं गए और उनमें आवश्यक अनुमोदन भी नहीं था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि अभियोजन पक्ष ने इन मृत्युपूर्व कथनों को धारा 313 सीआरपीसी के तहत आरोपी से पूछे ही नहीं, जिससे आरोपी को अपनी सफाई देने का अवसर नहीं मिला।
पीठ ने टिप्पणी की:
“अभियोजन पक्ष ने दो पीड़ितों के मृत्युपूर्व कथनों पर बहुत अधिक भरोसा किया है। चूंकि ये साक्ष्य आरोपी से उसके धारा 313 सीआरपीसी के तहत बयान में नहीं पूछे गए, इसलिए उसे उनका स्पष्टीकरण देने का अवसर नहीं मिला। यह चूक आरोपी को नुकसान पहुँचाती है।”
आरोपी के झुलसने की चोटें:
अदालत ने यह भी देखा कि आरोपी और सह-आरोपी असलम दोनों को गंभीर रूप से जलने की चोटें आई थीं (क्रमशः 20% और 40%), जो अभियोजन पक्ष के इस दावे से मेल नहीं खातीं कि वे घटना के समय घर के बाहर थे।
हाईकोर्ट के फैसले पर:
हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के कुछ निष्कर्षों से असहमति जताई, लेकिन यह माना कि अभियोजन पक्ष अपराध को संदेह से परे सिद्ध करने में विफल रहा, और यह एक संभाव्य दृष्टिकोण था। अपील अगर बरी के विरुद्ध हो तो केवल विपरीत दृष्टिकोण होना निर्णय पलटने के लिए पर्याप्त नहीं होता।
महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ व निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने राज कुमार मामले के निर्णय का हवाला देते हुए दोहराया:
“यह ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य है कि वह अभियोजन साक्ष्य में प्रकट प्रत्येक महत्वपूर्ण तथ्य को आरोपी से विशेष रूप से, स्पष्ट रूप से और अलग-अलग पूछे। ऐसा न करना एक गंभीर त्रुटि है।”
अदालत ने आगे निर्देश दिया:
“जब किसी दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील हाईकोर्ट में दायर हो, तो प्रारंभिक चरण में ही यह जांच आवश्यक है कि क्या धारा 313 (अब बीएनएसएस की धारा 351) के तहत आरोपी का बयान विधिवत रूप से दर्ज किया गया है। यदि कोई दोष पाया जाए, तो उसी समय उसकी पूर्ति की जानी चाहिए… इससे देरी और पूर्वाग्रह की दलील का निवारण होगा।”
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक अकादमियों को भी निर्देश दिया कि वे ट्रायल जजों को इस प्रावधान के उचित अनुपालन के महत्व पर प्रशिक्षित करें।
निष्कर्ष
महत्वपूर्ण साक्ष्य को धारा 313 के तहत आरोपी से पूछे बिना ट्रायल किए जाने से जो प्रक्रिया संबंधी त्रुटियां हुईं, उनके चलते सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट के बरी करने के आदेश में हस्तक्षेप का कोई औचित्य नहीं है। सभी अपीलें खारिज कर दी गईं।
अदालत ने श्री शुभ्रांशु पाढ़ी, अमिकस क्यूरी, की सहायता के लिए प्रशंसा व्यक्त की।
उद्धरण:
क्रिमिनल अपील संख्या 2142 / 2017 | एजाज़ अहमद शेख बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य