बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को निर्देश दिया कि वह एक शिकायतकर्ता मां का नाम अपने रिकॉर्ड से हटा दे। यह आदेश 17 मार्च के हाईकोर्ट के उस विवादास्पद फैसले के बाद आया है जिसमें एक कथित बलात्कार प्रयास को लेकर देशभर में तीखी आलोचना हुई थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में कहा था कि किसी महिला के स्तनों को पकड़ना और उसकी पायजामा की नाड़ खींचना बलात्कार का प्रयास नहीं माना जा सकता। इस व्याख्या को लेकर न्यायिक संवेदनशीलता की कमी और अपराध की गंभीरता को नज़रअंदाज़ करने के आरोप लगे, जिससे यह मामला व्यापक आलोचना का विषय बन गया।
मुख्य न्यायाधीश डॉ. संजीव खन्ना की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्वतः संज्ञान लिया। 26 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के विवादित हिस्सों पर रोक लगाते हुए ऐसे मामलों में न्यायिक दृष्टिकोण की संवेदनशीलता पर बल दिया।

बुधवार को हुई सुनवाई में Just Rights for Children Alliance और पीड़िता की मां की ओर से एक याचिका दाखिल की गई, जिसमें मांग की गई कि उनकी याचिका को सुप्रीम कोर्ट की स्वतः संज्ञान वाली कार्यवाही के साथ जोड़ा जाए। वरिष्ठ अधिवक्ता एच एस फूलका ने अदालत से अनुरोध किया कि पीड़िता की मां की पहचान गोपनीय रखी जाए, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट पहले भी ऐसे मामलों में निर्देश दे चुका है।
न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मासिह की पीठ ने याचिका को 15 अप्रैल को मुख्य सुनवाई के साथ सूचीबद्ध करने पर सहमति जताई और इलाहाबाद हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार को दोहराया कि शिकायतकर्ता का नाम किसी भी रिकॉर्ड में उजागर न किया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणियों की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि वे स्थापित विधिक मानकों और यौन अपराध के मामलों में अपनाई जाने वाली सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से भटकाव का संकेत देती हैं। पीठ ने कहा, “सामान्यत: हम इस स्तर पर स्थगन नहीं देते, लेकिन जब विवादित टिप्पणियों में पूर्ण असंवेदनशीलता और अमानवीय दृष्टिकोण स्पष्ट हो, तब स्थगन आवश्यक हो जाता है।”
सुनवाई की अगली तारीखों में सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट की व्याख्या की विधिक वैधता और इसके व्यापक प्रभावों की गहराई से समीक्षा करेगा। कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार को भी नोटिस जारी कर जवाब मांगा है।