न्यायपालिका की गरिमा और स्वतंत्रता की रक्षा के उद्देश्य से एक सख्त कदम उठाते हुए, कलकत्ता हाईकोर्ट ने छह वकीलों के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू की है, जिन पर 2012 में एक आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान अदालत में जबरन घुसकर नारेबाजी करने और कार्यरत न्यायाधीश के कार्य में बाधा डालने का आरोप है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस प्रकार का आचरण, विशेषकर जब वह न्यायालय के अधिकारियों (वकीलों) द्वारा किया जाए, “कानून के शासन के मूल को प्रभावित करता है।”
जस्टिस देबांगसु बसाक और जस्टिस मोहम्मद शब्बर राशिदी की खंडपीठ ने यह आदेश CRLCP 8/2012 – कोर्ट ऑन इट्स ओन मोशन बनाम देबव्रत गोल्डर व अन्य मामले में पारित किया। यह मामला एक अधीनस्थ अदालत द्वारा शुरू किए गए एक लंबे समय से लंबित अवमानना संदर्भ से संबंधित है।
मामले की पृष्ठभूमि
6 जून 2012 को, बसीरहाट की फास्ट ट्रैक कोर्ट-III (उत्तर 24 परगना) में S.T. 49(8)11 आपराधिक मामले की सुनवाई के दौरान, छह वकीलों ने कथित रूप से कोर्टरूम में घुसकर नारे लगाए, न्यायाधीश के प्रति अभद्र भाषा का प्रयोग किया और “विरोध” के नाम पर आरोपी व्यक्तियों को जबरन बाहर निकाल दिया।

उस समय के अपर जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने इस घटना को अपने आदेश में रिकॉर्ड किया और कलकत्ता हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल को पत्र लिखकर अवमानना की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध किया। इसके बाद तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को एक समन्वय पीठ के समक्ष रखा, जिसने 3 जुलाई 2012 को छह वकीलों को कारण बताओ नोटिस जारी किया।
24 अगस्त 2012 को मामले पर बहस पूरी हो गई थी, लेकिन निर्णय पारित नहीं किया गया। 2025 में, एक दशक बाद, यह मामला फिर से जीवित किया गया और दोबारा सुना गया।
आरोप
न्यायिक आदेश और संदर्भ पत्र के अनुसार, छह वकीलों ने:
- “विरोध” की आड़ में आरोपी व्यक्तियों को जबरन कोर्ट से बाहर निकाला।
- पीठासीन न्यायाधीश के विरुद्ध अपशब्दों का प्रयोग किया।
- अदालत की कार्यवाही के दौरान नारेबाजी की।
- न्यायाधीश को उनके न्यायिक कर्तव्यों से रोका।
- वादकारियों को कोर्टरूम छोड़ने के लिए मजबूर किया।
- अदालत को न्यायिक आदेश पारित करने से रोका।
हाईकोर्ट ने माना कि यह आचरण न केवल अदालत की कार्यवाही में बाधा था, बल्कि यह न्यायाधीश को डराने का प्रयास था, जो कि आपराधिक अवमानना की श्रेणी में आता है।
मुख्य कानूनी पहलू
सीमा (Limitation):
शुरुआत में बचाव पक्ष ने दलील दी कि कार्यवाही समय-सीमा से बाहर है, लेकिन बहस के दौरान इसे वापस ले लिया गया। कोर्ट ने माना कि 6 जून 2012 को संदर्भ भेजा गया और 3 जुलाई 2012 को कोर्ट ने कार्रवाई की, जो एक वर्ष की सीमा के भीतर था।
गंभीरता और औचित्य:
कोर्ट ने कहा कि यह महज अव्यवस्थित व्यवहार नहीं था, बल्कि जानबूझकर न्याय में बाधा पहुंचाने और न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाने का मामला था, जो स्पष्ट रूप से आपराधिक अवमानना की परिभाषा में आता है।
कोर्ट की टिप्पणी
खंडपीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
“ऐसे पर्याप्त सामग्री उपलब्ध हैं जिनके आधार पर इन छह व्यक्तियों के खिलाफ अवमानना का रूल जारी किया जा सकता है।”
कोर्ट ने कहा कि इस तरह के आचरण को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता, खासकर तब, जब यह वकीलों जैसे कानूनी पेशेवरों द्वारा किया गया हो, जो न्याय प्रणाली के संरक्षक माने जाते हैं।
अवमानना रूल जारी
कोर्ट ने Contempt of Courts Rules के Form 2 of Appendix I के तहत निम्नलिखित छह व्यक्तियों के खिलाफ अवमानना का रूल जारी किया:
- श्री देबव्रत गोल्डर
- श्री बिस्वजीत राय
- श्री इस्माइल मियां
- श्री बिकाश घोष
- श्री अब्दुल मामून
- श्री कालीचरण मंडल
इन सभी को निर्देश दिया गया है कि वे बसीरहाट सब-डिविजनल कोर्ट के शेरिस्तादार से रूल की सेवा स्वीकार करें। यह रूल 28 मार्च 2025 को वापसी योग्य (returnable) बनाया गया है।
कानूनी पक्षकार
आरोपित वकीलों की ओर से:
- वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अभ्रतोष मजूमदार
- अधिवक्ता: श्री शमीम अहमद, श्री अर्क मैती, सुश्री अंबिया खातून, सुश्री गुलशनवारा परवीन, श्री अर्क रंजन भट्टाचार्य, श्री इनामुल इस्लाम, श्री नसीरुल हक़
हाईकोर्ट प्रशासन की ओर से:
- वरिष्ठ अधिवक्ता श्री सैकत बनर्जी (वर्चुअली)
- अधिवक्ता: श्री विक्टर चटर्जी, श्री शिर्षो बनर्जी