सुप्रीम कोर्ट: न्यायालय कानूनी प्रावधानों में संशोधन नहीं कर सकते या अतिरिक्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय नहीं जोड़ सकते

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में दोहराया है कि न्यायालय किसी भी कानून में संशोधन नहीं कर सकते और न ही ऐसे अतिरिक्त प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय जोड़ सकते हैं, जो कानून में पहले से निहित नहीं हैं। पूर्व आईएएस अधिकारी प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा द्वारा दायर अपील को खारिज करते हुए, शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि कोई संज्ञेय अपराध (Cognizable Offence) सामने आता है, तो दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 154 के तहत एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है और ऐसे मामलों में प्रारंभिक जांच की कोई आवश्यकता नहीं होती।

न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए शर्मा की याचिका को खारिज कर दिया। शर्मा ने अपनी याचिका में यह मांग की थी कि उनके खिलाफ कोई भी एफआईआर दर्ज करने से पहले अधिकारियों को प्रारंभिक जांच करनी चाहिए। अदालत ने यह स्पष्ट किया कि न्यायिक हस्तक्षेप वैधानिक प्रावधानों को दरकिनार नहीं कर सकता

न्यायालय ने कहा:
“CrPC में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी आरोपी को एफआईआर दर्ज होने से पहले अपनी सफाई देने का अवसर प्रदान करता हो। न्यायालय कानूनी प्रावधानों में संशोधन नहीं कर सकते या ऐसे अतिरिक्त प्रक्रियात्मक उपाय नहीं जोड़ सकते, जो कानून में पहले से मौजूद नहीं हैं।”

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मामले की पृष्ठभूमि

प्रदीप निरंकारनाथ शर्मा, जो कि 2003 से 2006 तक गुजरात के कच्छ जिले के कलेक्टर रहे, उनके खिलाफ पद के दुरुपयोग, भ्रष्टाचार और भूमि आवंटन में वित्तीय अनियमितताओं से संबंधित कई एफआईआर दर्ज की गई थीं। पहली एफआईआर 2010 में दर्ज हुई थी, जिसके बाद कई अन्य मामले भी दर्ज हुए, जिसके चलते वे न्यायिक हिरासत में रहे और उनके खिलाफ कई मुकदमे चल रहे हैं।

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शर्मा ने संविधान के अनुच्छेद 14, 20, 21, 22 और 226 के तहत गुजरात उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि लगातार बिना किसी प्रारंभिक जांच के उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करना उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और यह उन्हें परेशान करने के लिए किया जा रहा है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार एवं अन्य (2014) फैसले का हवाला देते हुए कहा कि सरकारी पद के दुरुपयोग के आरोपों के मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच आवश्यक है।

हालांकि, गुजरात सरकार ने इस याचिका का विरोध करते हुए कहा कि CrPC की धारा 154 के तहत पुलिस को किसी भी संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर एफआईआर दर्ज करना अनिवार्य है। गुजरात उच्च न्यायालय ने इस दलील को स्वीकार करते हुए 31 जनवरी 2024 को शर्मा की याचिका को खारिज कर दिया।

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सुप्रीम कोर्ट का अवलोकन और फैसला

गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देते हुए, शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। उनकी ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने पक्ष रखा, जबकि गुजरात सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अपना पक्ष प्रस्तुत किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में ललिता कुमारी मामले में दिए गए दिशा-निर्देशों को दोहराते हुए स्पष्ट किया कि:

  • प्रारंभिक जांच केवल उन्हीं मामलों में आवश्यक होती है, जहां यह स्पष्ट नहीं होता कि अपराध संज्ञेय है या नहीं, जैसे कि चिकित्सकीय लापरवाही, व्यावसायिक विवाद और पारिवारिक मामले
  • लेकिन, जहां आरोप स्पष्ट रूप से भ्रष्टाचार और पद के दुरुपयोग को दर्शाते हैं, वहां प्रारंभिक जांच का कोई औचित्य नहीं है।

अदालत ने आगे कहा:
“यदि प्राप्त सूचना से संज्ञेय अपराध स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, तो पुलिस को एफआईआर दर्ज करने में कोई विवेकाधिकार नहीं है। ऐसे मामलों में प्रारंभिक जांच की कोई कानूनी आवश्यकता नहीं है।”

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी बताया कि अपीलकर्ता के पास कई कानूनी उपाय उपलब्ध हैं, जिनमें शामिल हैं:

  • अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) का अधिकार
  • दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत झूठी एफआईआर को रद्द करने की याचिका
  • दुर्भावनापूर्ण अभियोजन (Malicious Prosecution) को चुनौती देने का अधिकार
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अदालत ने स्पष्ट रूप से शर्मा की उस मांग को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने उनके खिलाफ किसी भी नए एफआईआर से पहले प्रारंभिक जांच को अनिवार्य करने का अनुरोध किया था।

“इस तरह का निर्देश न्यायिक अतिक्रमण (Judicial Overreach) के समान होगा। न्यायालय कानूनी प्रावधानों को संशोधित नहीं कर सकते और न ही कानून में पहले से मौजूद नहीं प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय जोड़ सकते हैं।”

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए शर्मा की अपील को खारिज कर दिया। अदालत ने पाया कि अपीलकर्ता अपने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन को साबित करने में असफल रहे हैं। हालांकि, कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह निर्णय शर्मा को वर्तमान या भविष्य में किसी भी लंबित मामले के लिए कानून के तहत उपलब्ध उपायों को अपनाने से नहीं रोकता।

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