केरल हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि वकीलों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अदालत की कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दी गई है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वे कार्यवाही को रिकॉर्ड कर सकते हैं या उसे प्रसारित कर सकते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
केरल हाईकोर्ट ने एम/एस. एम.डी. एस्थप्पन और उसके प्रोपराइटर द्वारा दायर दो रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसमें धनलक्ष्मी बैंक लिमिटेड द्वारा सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट, 2002 (SARFAESI अधिनियम) के तहत की गई वसूली कार्रवाई को चुनौती दी गई थी।
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि वे सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम विकास अधिनियम, 2006 (MSMED अधिनियम) के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने के हकदार थे और बैंक को उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने से पहले निर्धारित पुनर्वास ढांचे का पालन करना चाहिए था।

एम/एस. एम.डी. एस्थप्पन इंफ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड और उसके प्रोपराइटर एम.डी. एस्थप्पन ने धनलक्ष्मी बैंक लिमिटेड से ऋण लिया था। डिफॉल्ट होने पर बैंक ने SARFAESI अधिनियम के तहत वसूली की प्रक्रिया शुरू की। याचिकाकर्ताओं ने केरल हाईकोर्ट में तर्क दिया कि वे एमएसएमई हैं और इसलिए उन्हें आरबीआई द्वारा 17 मार्च 2016 को जारी सर्कुलर के तहत सुरक्षा मिलनी चाहिए, जिसमें कहा गया है कि किसी भी एमएसएमई खाते को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) घोषित करने से पहले बैंक को इसे स्ट्रेस्ड एमएसएमई कमेटी को भेजना चाहिए।
हाईकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति गोपीनाथ पी. ने मामले की सुनवाई करते हुए देखा कि याचिकाकर्ताओं ने अपने खाते को एनपीए घोषित करने से पहले एमएसएमई लाभों का दावा नहीं किया था। अदालत ने प्रो निट्स बनाम केनरा बैंक (2024) 10 SCC 292 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि एमएसएमई को अपने ऋण खाते के एनपीए में बदलने से पहले पुनर्वास का दावा करना चाहिए।
इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने इस मामले में पहले भी बॉम्बे हाईकोर्ट और ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT) में मुकदमा दायर किया था, लेकिन वहां उन्होंने एमएसएमई दर्जे का दावा नहीं किया था।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि सुप्रीम कोर्ट और केरल हाईकोर्ट के पहले के फैसलों के अनुसार, एमएसएमई को उनकी वित्तीय परेशानियों के समाधान के लिए पहले ही कदम उठाने चाहिए। अदालत ने कहा:
“जब उच्च न्यायालय ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने से इनकार करता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि याचिकाकर्ताओं ने बैंक को अधिकार सौंप दिया, बल्कि इसका अर्थ यह है कि उधारकर्ता के पास न्यायालय के समक्ष वाद प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं है, भले ही बैंक का कार्य गैरकानूनी हो या नहीं।”
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि आरबीआई के दिशानिर्देशों को SARFAESI अधिनियम पर वरीयता नहीं दी जा सकती, क्योंकि SARFAESI अधिनियम की धारा 35 किसी भी अन्य विरोधाभासी कानून पर प्रभावी होती है।
अदालत की कार्यवाही की अवैध रिकॉर्डिंग पर चेतावनी
इस मामले की सुनवाई के दौरान एक अप्रत्याशित घटनाक्रम में, अदालत के संज्ञान में यह लाया गया कि कुछ व्यक्तियों ने अदालत की वर्चुअल कार्यवाही को रिकॉर्ड कर लिया और इसे व्हाट्सएप समूहों में वकीलों और उधारकर्ताओं के बीच प्रसारित कर दिया।
याचिकाकर्ताओं के वकील मैथ्यू जे. नेडुमपारा ने पारदर्शिता का हवाला देते हुए रिकॉर्डिंग और उसके प्रसारण का बचाव किया। हालांकि, न्यायमूर्ति गोपीनाथ पी. ने इस तर्क को सिरे से खारिज कर दिया और इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंक नियम, 2021 (केरल) और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लिए मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) का हवाला दिया, जिसमें स्पष्ट रूप से वर्चुअल कार्यवाही की रिकॉर्डिंग और प्रसारण को प्रतिबंधित किया गया है।
अदालत ने कहा:
“न्यायिक प्रक्रिया में पारदर्शिता का यह अर्थ नहीं है कि कार्यवाही को बिना अनुमति के रिकॉर्ड कर उसे प्रसारित किया जाए। ऐसा करना अदालत की अवमानना है और न्यायिक प्रशासन में हस्तक्षेप के समान है।”
अदालत ने इस मामले को केरल हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष भेजने का निर्देश दिया ताकि यह विचार किया जा सके कि क्या अवमानना की कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए।
अंतिम निर्णय
केरल हाईकोर्ट ने दोनों याचिकाओं को खारिज करते हुए स्पष्ट कर दिया कि यदि उधारकर्ता अपने खाते को एनपीए घोषित किए जाने से पहले एमएसएमई पुनर्वास प्रक्रिया का लाभ नहीं लेते हैं, तो वे बाद में इसे बैंक की वसूली प्रक्रिया को रोकने के लिए उपयोग नहीं कर सकते।
इसके साथ ही, अदालत ने यह भी दोहराया कि वर्चुअल कोर्ट कार्यवाही की रिकॉर्डिंग और प्रसारण कानूनी मानदंडों का उल्लंघन है और ऐसे कृत्यों पर अवमानना की कार्यवाही शुरू हो सकती है।