सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी व्यक्ति को बाल यौन अपराध संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO Act) और भारतीय दंड संहिता (IPC) दोनों के तहत दोषी ठहराया जाता है, तो उस कानून के तहत सजा दी जाएगी, जिसमें अधिक कठोर दंड का प्रावधान है। अदालत ने कहा कि POCSO अधिनियम की धारा 42 के अनुसार, यदि कोई अपराध दोनों कानूनों के तहत दंडनीय है, तो जिस कानून में अधिक कठोर सजा का प्रावधान हो, वही लागू किया जाएगा।
मामले की पृष्ठभूमि
यह फैसला ग्यानेंद्र सिंह @ राजा सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [क्रिमिनल अपील (डायरी संख्या 36334/2024)] के मामले में सुनाया गया। यह मामला एक विशेष अनुमति याचिका (SLP) से उत्पन्न हुआ था, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए निचली अदालत द्वारा दी गई सजा को बहाल कर दिया और हाईकोर्ट द्वारा बढ़ाई गई सजा को निरस्त कर दिया।
यह मामला उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले का है, जहां ग्यानेंद्र सिंह उर्फ राजा सिंह को अपनी नाबालिग बेटी से बलात्कार के आरोप में दोषी ठहराया गया था। यह दर्दनाक घटना 22 अक्टूबर 2015 को घटी, जब आरोपी ने अपनी पत्नी की गैर-मौजूदगी में नौ वर्षीय बेटी के साथ दुष्कर्म किया।

पीड़िता ने अपनी आपबीती अपने दादा को सुनाई, जिसके बाद परिजनों ने पुलिस थाने में एफआईआर (केस क्राइम नंबर 236/2015) दर्ज करवाई।
चिकित्सकीय जांच में यौन शोषण की पुष्टि हुई। आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया और उसके खिलाफ निम्नलिखित धाराओं के तहत आरोपपत्र दाखिल किया गया:
- IPC की धारा 376(2)(f) और 376(2)(i) (गंभीर बलात्कार के तहत, जब अपराध किसी विश्वासपात्र व्यक्ति द्वारा किया गया हो)
- POCSO अधिनियम की धारा 3/4 (नाबालिगों के खिलाफ घुसपैठ यौन हमला)
ट्रायल और हाईकोर्ट का निर्णय
फतेहपुर के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने आरोपी को आजीवन कारावास (life imprisonment) की सजा सुनाई और ₹25,000 का जुर्माना लगाया।
बाद में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2 अगस्त 2019 को अपने फैसले में दोषसिद्धि को बरकरार रखते हुए सजा को और कठोर बना दिया। हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा को संशोधित कर “जीवन के शेष समय तक कारावास” (remainder of natural life) में बदल दिया।
आरोपी ने इस सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की।
सुप्रीम कोर्ट में उठाए गए प्रमुख कानूनी प्रश्न
- क्या आरोपी को IPC, POCSO अधिनियम, या दोनों के तहत दोषी ठहराया जा सकता है?
- क्या हाईकोर्ट का आरोपी की सजा को “जीवन के शेष समय तक कारावास” में बदलना न्यायसंगत था?
- POCSO अधिनियम की धारा 42 और 42A की व्याख्या, जहां IPC और POCSO दोनों लागू होते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने POCSO अधिनियम की धारा 42 और 42A की व्याख्या करते हुए कहा कि जब कोई अपराध IPC और POCSO अधिनियम दोनों के तहत आता है, तो अधिक कठोर सजा वाले कानून का ही पालन किया जाएगा।
कोर्ट के महत्वपूर्ण अवलोकन:
✔️ “जब कोई अपराध IPC और POCSO अधिनियम दोनों के तहत दंडनीय हो, तो अपराधी को उस कानून के तहत दंडित किया जाएगा, जिसमें अधिक कठोर सजा दी गई हो।”
✔️ “POCSO अधिनियम की धारा 42 यह सुनिश्चित करती है कि अपराधी को दो बार सजा न मिले, बल्कि उसे कड़ी से कड़ी सजा दी जाए।”
✔️ “POCSO अधिनियम की धारा 42A की प्राथमिकता केवल तभी होगी जब IPC और POCSO अधिनियम में विरोधाभास हो, लेकिन यह धारा 42 के सिद्धांत को समाप्त नहीं करती।”
अंतिम फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को IPC की धारा 376(2)(f) और 376(2)(i) तथा POCSO अधिनियम की धारा 3/4 के तहत दोषी मानते हुए ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई सजा को बहाल कर दिया।
हालांकि, कोर्ट ने पाया कि हाईकोर्ट ने सजा को “जीवन के शेष समय तक कारावास” में बदलने में त्रुटि की थी।
👉 अदालत ने ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा को बहाल किया लेकिन यह स्पष्ट कर दिया कि यह सजा “स्वाभाविक जीवन की समाप्ति तक” नहीं होगी।
👉 कोर्ट ने आरोपी पर जुर्माने की राशि बढ़ाकर ₹5,00,000 कर दी और निर्देश दिया कि यह राशि पीड़िता को मुआवजे के रूप में दी जाए।