पुलिस प्रतिबंधों के कारण वकील को अदालत जाने से रोका जाए तो यह दुखद होगा: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने राज्य प्राधिकरणों को फटकार लगाई

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने आगरा पुलिस की उस कार्रवाई पर कड़ी नाराजगी जताई है, जिसमें वरिष्ठ वकील महताब सिंह की आवाजाही को केवल इस आशंका के आधार पर प्रतिबंधित कर दिया गया कि वे किसी न्यायिक अधिकारी के खिलाफ शिकायत कर सकते हैं। जस्टिस अश्विनी कुमार मिश्रा और जस्टिस डोनडी रमेश की खंडपीठ ने आगरा के पुलिस आयुक्त से विस्तृत स्पष्टीकरण मांगा है कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 की धारा 168 के तहत नोटिस जारी करने और याचिकाकर्ता की गतिविधियों की निगरानी करने का क्या औचित्य था।

मामले की पृष्ठभूमि

याचिकाकर्ता महताब सिंह, जो 70 वर्षीय अधिवक्ता हैं और आगरा के जिला एवं सत्र न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं, ने आरोप लगाया कि 15 नवंबर 2024 को जब प्रशासनिक न्यायाधीश न्यायालय का निरीक्षण करने वाले थे, तब उन्हें नज़रबंद कर दिया गया। सिंह के अनुसार, चार पुलिस अधिकारी उनके आवास पर पहुंचे और उन्हें धारा 168 के तहत एक नोटिस थमा दिया, जो कथित रूप से आगरा के जिला एवं सत्र न्यायाधीश के निर्देश पर दिया गया था। उन्होंने कहा कि उन्हें सुबह 6 बजे से शाम 4 बजे तक घर में ही कैद रखा गया, जिससे वे प्रशासनिक न्यायाधीश से मुलाकात नहीं कर सके।

सिंह का आरोप है कि यह पाबंदी इसलिए लगाई गई ताकि वे दौरा करने वाले न्यायाधीश को किसी न्यायिक कदाचार की शिकायत न कर सकें। उन्होंने अपने आवास पर तैनात पुलिस अधिकारियों की तस्वीरें भी सबूत के तौर पर प्रस्तुत कीं।

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कोर्ट की टिप्पणियां और निष्कर्ष

हाईकोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लिया और आगरा के पुलिस आयुक्त से व्यक्तिगत हलफनामा प्रस्तुत करने को कहा। पुलिस ने अपने बचाव में यह तर्क दिया कि खुफिया रिपोर्ट के अनुसार, कुछ वकील, जिनमें सिंह भी शामिल थे, प्रशासनिक न्यायाधीश के दौरे में व्यवधान डाल सकते थे। साथ ही, पुलिस ने 1988 के एक आपराधिक मामले का हवाला देते हुए उनके खिलाफ कार्रवाई को उचित ठहराने की कोशिश की।

हालांकि, अदालत ने इस तर्क को सख्ती से खारिज कर दिया और टिप्पणी की:

“हम यह समझने में असमर्थ हैं कि प्रशासनिक न्यायाधीश के दौरे के दौरान याचिकाकर्ता को धारा 168 के तहत नोटिस जारी करने की क्या जरूरत थी।”

पीठ ने आगे कहा:

“यदि याचिकाकर्ता 37 साल पहले किसी मामले में शामिल थे, तो यह 2024 में उन्हें धारा 168 के तहत नोटिस देने का पर्याप्त कारण नहीं हो सकता।”

पुलिस की सफाई पर अदालत की सख्त प्रतिक्रिया

आगरा के जिला न्यायाधीश ने सीलबंद रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए यह दावा किया कि उन्होंने पुलिस को वकील के खिलाफ कोई कार्रवाई करने का आदेश नहीं दिया था, बल्कि यह निर्णय पुलिस ने अपने स्तर पर लिया था। इस पर हाईकोर्ट ने कड़ी आपत्ति जताई और कहा:

“यदि किसी जिला अदालत में प्रैक्टिस करने वाले वकील को केवल इसलिए अदालत जाने से रोका जाए क्योंकि प्रशासनिक न्यायाधीश वहां दौरे पर हैं, तो यह न्यायिक प्रणाली के लिए बेहद चिंताजनक स्थिति होगी।”

अदालत ने पुलिस की स्वतंत्र कार्रवाई के अधिकार पर सवाल उठाते हुए कहा कि वकीलों की आवाजाही पर इस तरह की रोकटोक न्याय व्यवस्था को प्रभावित कर सकती है।

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मामले में उठे कानूनी प्रश्न

  1. मौलिक अधिकारों का उल्लंघन – याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि पुलिस की यह कार्रवाई भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) और अनुच्छेद 19 (आवागमन और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) का उल्लंघन करती है।
  2. धारा 168 BNSS का दुरुपयोग – अदालत ने यह जांचने की जरूरत बताई कि क्या इस धारा का इस्तेमाल गलत तरीके से किया गया, क्योंकि यह केवल उन लोगों के खिलाफ लागू होती है, जिनके खिलाफ संज्ञेय अपराध करने की संभावना हो।
  3. न्यायिक स्वतंत्रता पर खतरा – यह मामला इस बड़े सवाल को भी जन्म देता है कि क्या पुलिस को न्यायिक मामलों में इतनी दखलंदाजी करनी चाहिए कि वह किसी अधिवक्ता को प्रशासनिक न्यायाधीश के सामने अपनी शिकायत रखने से रोक सके।
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हाईकोर्ट के निर्देश

इन गंभीर चिंताओं को देखते हुए, हाईकोर्ट ने आगरा के पुलिस आयुक्त को आदेश दिया कि वे:

  1. विस्तृत हलफनामा प्रस्तुत करें, जिसमें यह बताया जाए कि नोटिस जारी करने का औचित्य क्या था।
  2. यह स्पष्ट करें कि पिछले 10 वर्षों में अन्य वकीलों के खिलाफ भी ऐसी कार्रवाई की गई है या नहीं।
  3. प्रशासनिक न्यायाधीशों के दौरे के दौरान इस तरह की पाबंदियां पहले भी लगाई गई हैं या नहीं, इसका पूरा रिकॉर्ड प्रस्तुत करें।
  4. अगली सुनवाई के दौरान संबंधित पुलिस अधिकारियों की अदालत में उपस्थिति सुनिश्चित करें।

अदालत ने यह भी आदेश दिया कि जिला न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत सीलबंद रिपोर्ट को सुरक्षित रखा जाए और इसे 18 मार्च 2025 को होने वाली अगली सुनवाई में प्रस्तुत किया जाए।

इस मामले में याचिकाकर्ता की ओर से अधिवक्ता संदीप मिश्रा ने पैरवी की, जबकि उत्तर प्रदेश राज्य की ओर से अतिरिक्त मुख्य स्थायी अधिवक्ता डॉ. डी.के. त्रिपाठी ने पक्ष रखा।

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