छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक विवादित उत्तराधिकार मामले में द्वितीय अपील (SA No. 221 of 2022) को खारिज कर दिया है। न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि वादीगण यह प्रमाणित करने में असफल रहे कि दिवंगत संपत्ति स्वामी, दशमत बाई द्वारा प्रस्तुत वसीयत वैध थी। कोर्ट ने माना कि वसीयत संदेहास्पद परिस्थितियों से घिरी थी और यह स्पष्ट किया कि “केवल वसीयत का निष्पादन उसकी वैधता स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं होता, जब तक कि सभी संदेह दूर न कर दिए जाएं।”
न्यायमूर्ति पार्थ प्रतीम साहू द्वारा दिए गए इस फैसले में पुनः पुष्टि की गई कि वसीयत की प्रमाणिकता साबित करने का पूर्ण दायित्व प्रस्तावक पर होता है, विशेष रूप से जब उसके निष्पादन को लेकर कोई विसंगति या संदेह उत्पन्न होता है। न्यायालय ने पाया कि वादीगण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 68 के कठोर कानूनी मानकों को पूरा करने में असफल रहे, जिसके कारण उनकी अपील खारिज कर दी गई।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद छत्तीसगढ़ के जिला जांजगीर-चांपा के ग्राम कमरीद में स्थित 89.95 एकड़ भूमि से संबंधित था। अपीलकर्ता, श्रीमती आशा बाई और राजेंद्र कुमार, ने दावा किया कि यह संपत्ति उन्हें 3 नवंबर 1995 की वसीयत के माध्यम से प्राप्त हुई थी, जिसे दशमत बाई, जो कि एक निःसंतान विधवा थीं, द्वारा निष्पादित किया गया था। उन्होंने इस वसीयत के आधार पर स्वामित्व की घोषणा, कब्जा और विभाजन की मांग की, साथ ही 19 दिसंबर 2014 की बिक्री विलेख और 21 मार्च 2018 के राजस्व आदेश को चुनौती दी, जो प्रतिस्पर्धी उत्तराधिकार दावों को मान्यता देता था।
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वादीगण का दावा पहले सिविल न्यायाधीश, वर्ग-II, पामगढ़ (सिविल वाद संख्या 15A/2014) द्वारा खारिज कर दिया गया था, जिसे बाद में द्वितीय अतिरिक्त जिला न्यायाधीश, जांजगीर (सिविल अपील संख्या 23A/2020) ने बरकरार रखा। इसके बाद, वादीगण ने हाईकोर्ट में द्वितीय अपील दायर की, जिसे अब खारिज कर दिया गया है।
कानूनी मुद्दे और न्यायालय के निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने यह विश्लेषण किया कि क्या वादीगण भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 63 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 68 के तहत वसीयत की वैधता प्रमाणित करने में सफल रहे। न्यायमूर्ति पार्थ प्रतीम साहू ने वादीगण के दावे में कई कमियां पाईं, जिनमें प्रमुख रूप से निम्नलिखित शामिल थीं:
- प्रमाणित गवाही का अभाव:
- गवाह राजेश्वर सिंह (PW-3) यह पुष्टि करने में असफल रहे कि दशमत बाई ने उनकी उपस्थिति में अपने अंगूठे का निशान लगाया या उन्होंने वसीयत पर उनके समक्ष हस्ताक्षर किए।
- भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63(c) के तहत, दो गवाहों द्वारा वसीयतकर्ता को हस्ताक्षर करते हुए देखना और उनके समक्ष वसीयत को प्रमाणित करना आवश्यक है, जिसे स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया गया।
- वसीयत में संपत्ति का विवरण नहीं:
- न्यायालय ने पाया कि वसीयत में संपत्ति का स्पष्ट विवरण नहीं दिया गया था, जिससे इसकी प्रामाणिकता पर संदेह उत्पन्न हुआ।
- एक लाभार्थी द्वारा वसीयत का खंडन:
- प्रतिवादी संख्या 16, कपिल, जो कि वसीयत में नामित लाभार्थी थे, ने इसके निष्पादन से इनकार किया, जिससे वसीयत की विश्वसनीयता और संदिग्ध हो गई।
- वसीयतकर्ता की साक्षरता और उम्र:
- वसीयतकर्ता एक 98 वर्षीय अशिक्षित महिला थीं, और यह साबित नहीं किया गया कि वसीयत पढ़कर उन्हें समझाई गई थी।
- न्यायालय ने यह भी प्रश्न उठाया कि क्या वह इसके कानूनी प्रभावों को पूरी तरह समझ पाईं थीं।
- गवाही में विरोधाभास:
- वादी संख्या 1, आशा बाई, ने अपनी जिरह के दौरान स्वीकार किया कि उनका परिवार 1987 में गांव छोड़ चुका था, जबकि वसीयत में दावा किया गया था कि वे दशमत बाई की 30 वर्षों तक देखभाल कर रहे थे।
न्यायिक दृष्टांत और प्रमुख टिप्पणियां
न्यायालय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का संदर्भ दिया, जिनमें H. वेंकटचल अय्यंगर बनाम B.N. थिम्मज्जम्मा (AIR 1959 SC 443) और गोपाल कृष्ण एवं अन्य बनाम दौलत राम एवं अन्य (सिविल अपील संख्या 13192/2024, निर्णय दिनांक 02.01.2025) शामिल हैं। इन मामलों में यह सिद्धांत स्थापित किया गया कि:
- जब वसीयत संदेहास्पद परिस्थितियों में निष्पादित होती है, तो इसे संदेह से परे प्रमाणित किया जाना चाहिए।
- वसीयत प्रस्तुत करने वाले को सभी संदेहों को ठोस साक्ष्यों के माध्यम से दूर करना आवश्यक है।
- “एक वसीयत किसी भी संदेह से मुक्त होनी चाहिए, और जब इसकी वैधता पर प्रश्न उठाया जाता है, तो इसका प्रमाणिकता सिद्ध करने का दायित्व पूरी तरह प्रस्तावक पर होता है।”
हाईकोर्ट ने अपील को प्रारंभिक चरण में ही खारिज कर दिया और यह निर्णय दिया कि इस मामले में कोई भी महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न नहीं उठता। न्यायमूर्ति पार्थ प्रतीम साहू ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया:
“वसीयत से संबंधित संदिग्ध परिस्थितियाँ इसके निष्पादन को संदेहास्पद बनाती हैं, और कानून ऐसे संदेहों को स्पष्ट और ठोस प्रमाणों के माध्यम से दूर करने की मांग करता है।”