एक महत्वपूर्ण फैसले में, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023 की धारा 175(3) के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि एफआईआर दर्ज करने का आदेश देने से पहले मजिस्ट्रेट को प्रारंभिक जांच करनी चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि दोबारा जांच मनमाने ढंग से नहीं की जा सकती, इस बात पर जोर देते हुए कि आगे की जांच के लिए न्यायिक तर्क और नए भौतिक साक्ष्य की उपस्थिति आवश्यक है।
न्यायमूर्ति हरप्रीत सिंह बराड़ ने सीआरएम-एम-3193-2025 में यह फैसला सुनाया, जिसमें याचिकाकर्ता पवन खरबंदा ने डीडीआर संख्या 22 दिनांक 05.06.2012 को रद्द करने की मांग की थी, जो कि लुधियाना के सलेम टाबरी पुलिस स्टेशन में दिनांक 05.06.2012 को दर्ज एफआईआर संख्या 119 के संबंध में आईपीसी की धाराओं 323, 34 (बाद में हटाई गई आईपीसी की धाराओं 307, 382, 148, 149 के साथ) के तहत दर्ज की गई थी।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद 2012 में नगर निगम चुनावों के दौरान पैदा हुआ था, जब याचिकाकर्ता पवन खरबंदा कथित तौर पर पार्षद पद के लिए अपनी भाभी की उम्मीदवारी को बढ़ावा देने के लिए पोस्टर लगा रहे थे। याचिकाकर्ता के परिवार के सदस्यों और विरोधी पक्ष, जिसमें सतीश कुमार, प्रदीप नागर और अन्य शामिल थे, के बीच हिंसक विवाद के बाद एफआईआर दर्ज की गई थी। शिकायतकर्ता ने दावा किया कि हथियारबंद व्यक्तियों ने उन पर हमला किया, जिससे उन्हें गंभीर चोटें आईं।
हालाँकि, विरोधी पक्ष द्वारा एक क्रॉस-केस (डीडीआर) दर्ज किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि याचिकाकर्ता और उसके साथियों ने उन पर हमला किया और खरबंदा ने सतीश नागर पर पिस्तौल से गोली भी चलाई। जांच करने पर पुलिस को याचिकाकर्ता के खिलाफ आरोपों का समर्थन करने वाला कोई सबूत नहीं मिला और उसने रद्दीकरण रिपोर्ट दायर की।
इसके बावजूद, 12 साल बाद, लुधियाना के न्यायिक मजिस्ट्रेट ने 2024 में फिर से जांच का आदेश दिया, जिसके कारण याचिकाकर्ता ने हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी।
मुख्य कानूनी मुद्दे
1. क्या मजिस्ट्रेट नए सबूतों के बिना फिर से जांच का आदेश दे सकता है?
2. क्या बीएनएसएस की धारा 175(3) एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देने से पहले प्रारंभिक जांच अनिवार्य करती है?
3. आगे की जांच और फिर से जांच के बीच क्या अंतर है?
अदालत की टिप्पणियां और फैसला
न्यायमूर्ति हरप्रीत सिंह बराड़ ने फिर से जांच का निर्देश देने में मजिस्ट्रेट की शक्ति की सीमाओं पर कड़ी टिप्पणियां कीं। न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि पुनः जांच न तो दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) के तहत वैधानिक प्रावधान है और न ही नए बीएनएसएस ढांचे के तहत।
1. पुनः जांच का मनमाने ढंग से आदेश नहीं दिया जा सकता
न्यायालय ने सर्वोच्च न्यायालय के उदाहरणों पर भरोसा करते हुए कहा कि जब रद्दीकरण रिपोर्ट पहले ही दाखिल हो चुकी हो, तब पुनः जांच की अनुमति नहीं दी जा सकती, जब तक कि नए भौतिक साक्ष्य न हों। फैसले में रामचंद्रन बनाम आर. उदयकुमार (2008) 5 एससीसी 41 का हवाला दिया गया, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया:
“सीआरपीसी की धारा 173(2) के तहत जांच पूरी होने के बाद भी, पुलिस को धारा 173(8) के तहत आगे की जांच करने का अधिकार है, लेकिन नई जांच या पुनः जांच का नहीं।”
हाईकोर्ट ने कहा कि वर्तमान मामले में पुनः जांच को उचित ठहराने के लिए कोई नई सामग्री प्रस्तुत नहीं की गई, जिससे मजिस्ट्रेट का आदेश कानूनी रूप से अस्थिर हो गया।
2. बीएनएसएस की धारा 175(3) के तहत अनिवार्य प्रारंभिक जांच
फैसले का एक महत्वपूर्ण पहलू बीएनएसएस की धारा 175(3) पर हाईकोर्ट का जोर था, जो एक सुरक्षा उपाय प्रस्तुत करता है जिसके तहत मजिस्ट्रेट को एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करने की आवश्यकता होती है। न्यायालय ने टिप्पणी की:
“बीएनएसएस की धारा 175(3) यह सुनिश्चित करती है कि एफआईआर दर्ज होने से पहले मजिस्ट्रेट को जांच करनी चाहिए और पुलिस की दलीलों पर विचार करना चाहिए। यह प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपाय कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने और यह सुनिश्चित करने के लिए बनाया गया है कि केवल वास्तविक मामलों की ही जांच की जाए।”
निर्णय में आगे बताया गया कि प्रारंभिक जांच में न्यायिक विवेक का प्रयोग शामिल होना चाहिए और इसे महज औपचारिकता तक सीमित नहीं किया जा सकता। मजिस्ट्रेट को यह दर्शाने वाले विशिष्ट कारण दर्ज करने चाहिए कि पुलिस का हस्तक्षेप क्यों आवश्यक है।
3. त्वरित सुनवाई का अधिकार और कानून के दुरुपयोग की रोकथाम
न्यायालय ने याचिकाकर्ता के खिलाफ मामले को फिर से शुरू करने में 12 साल की देरी की कड़ी आलोचना की। त्वरित सुनवाई के संवैधानिक अधिकार का हवाला देते हुए, हाईकोर्ट ने दोहराया कि आपराधिक कार्यवाही को अनावश्यक रूप से लंबा खींचना संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है। इसने मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) 1 एससीसी 248 का हवाला दिया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने कहा:
“किसी भी नागरिक को उसकी स्वतंत्रता से ऐसी प्रक्रिया से वंचित नहीं किया जा सकता जो उचित, निष्पक्ष या न्यायसंगत न हो। किसी भी देरी से बचना चाहिए जिससे अभियुक्त को अनावश्यक परेशानी हो।”
हाईकोर्ट द्वारा जारी दिशा-निर्देश
कानूनी प्रक्रिया के इसी तरह के दुरुपयोग को रोकने के लिए, न्यायालय ने पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ में मजिस्ट्रेटों के लिए दिशा-निर्देश जारी किए:
रद्दीकरण रिपोर्ट का मूल्यांकन: मजिस्ट्रेट केवल शिकायतकर्ता के असंतुष्ट होने के आधार पर पुनः जांच का आदेश नहीं दे सकता।
बीएनएसएस की धारा 175(3) के तहत आदेश: एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देने से पहले, मजिस्ट्रेट को प्रारंभिक जांच करनी चाहिए और स्पष्ट कारण बताना चाहिए।
आगे की जांच के लिए मानदंड: किसी भी आगे की जांच को नए साक्ष्य द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए, और आगे की जांच की आड़ में पुनः जांच का आदेश नहीं दिया जाना चाहिए।
अंतिम फैसला
इन निष्कर्षों के आधार पर, हाईकोर्ट ने 05.06.2012 की डीडीआर संख्या 22 और लुधियाना के न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित 21.08.2024 के आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें पुनः जांच का निर्देश दिया गया था। इसने माना कि याचिकाकर्ता को पहले ही निर्दोष घोषित किया जा चुका है, और 12 साल बाद मामले को फिर से खोलना अनुचित था।
कानूनी प्रतिनिधित्व
याचिकाकर्ता की ओर से: अधिवक्ता मनुज नागराथ
पंजाब राज्य की ओर से: अतिरिक्त महाधिवक्ता सुभाष गोदारा