आशय के बिना दी गई धमकियाँ आपराधिक भयादोहन नहीं मानी जाएंगी: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया कि केवल धमकी देना, बिना किसी को डराने के आशय के, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 506 के तहत आपराधिक भयादोहन (क्रिमिनल इंटिमिडेशन) की श्रेणी में नहीं आता। जस्टिस अमित महाजन द्वारा दिए गए फैसले में X बनाम राज्य एवं अन्य (CRL.REV.P. 1203/2019) मामले में चार आरोपियों को बरी करने के खिलाफ दायर पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया गया।

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला एक प्राथमिकी (एफआईआर संख्या 39/2019) से संबंधित था, जो 31 जनवरी 2019 को आर.के. पुरम पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी। याचिकाकर्ता ने आरोप लगाया कि मुख्य आरोपी महेश ने 13-14 वर्षों तक शादी का झूठा वादा कर उसका यौन शोषण किया। इसके अलावा, उसने आरोप लगाया कि महेश के परिवार और उसके सहयोगियों—प्रतिवादी संख्या 2 से 5—ने उसकी सहायता की और उसे तथा उसके पिता को गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी।

अभियोजन पक्ष ने आरोपियों पर IPC की धारा 376 (बलात्कार), 506 (आपराधिक भयादोहन), 120B (आपराधिक षड्यंत्र) और 195A (झूठा साक्ष्य देने के लिए धमकाना) के तहत मामला दर्ज किया था। हालांकि, पटियाला हाउस स्थित विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश (ASJ) ने 20 अगस्त 2019 के आदेश में प्रतिवादी संख्या 2 से 5 को यह कहते हुए बरी कर दिया कि उनके खिलाफ कोई प्रथम दृष्टया मामला नहीं बनता।

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अदालत की कानूनी व्याख्या और मुख्य मुद्दे

दिल्ली हाईकोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 227 और 228 के तहत आरोप मुक्त किए जाने से संबंधित कानूनी सिद्धांतों का विश्लेषण किया। अदालत ने दोहराया कि आरोप तय करने के चरण में न्यायालय को यह देखना होता है कि क्या अभियुक्त के खिलाफ “गंभीर संदेह” मौजूद है, न कि यह तय करना कि आरोप संदेह से परे साबित हुए हैं या नहीं।

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आपराधिक भयादोहन (धमकी) के आरोप पर विचार करते हुए, कोर्ट ने मणिक तनेजा बनाम कर्नाटक राज्य [(2015) 7 SCC 423] के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था:
“सिर्फ किसी शब्द का उच्चारण, यदि उसका उद्देश्य भय उत्पन्न करना नहीं है, तो उसे इस धारा के तहत अपराध नहीं माना जा सकता। रिकॉर्ड में यह दिखाने के लिए पर्याप्त साक्ष्य होने चाहिए कि धमकी देने वाले का इरादा वास्तव में डराने का था।”

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इस मामले में, याचिकाकर्ता ने दावा किया कि महेश की माँ और भाई (प्रतिवादी संख्या 2 और 4) ने उसे और उसके पिता को कानूनी कार्रवाई से रोकने के लिए धमकाया। हालांकि, कोर्ट ने पाया कि आरोप अस्पष्ट थे और उनके समर्थन में कोई ठोस प्रमाण नहीं था। याचिकाकर्ता के पिता को कथित तौर पर धमकियों के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था, लेकिन इस संबंध में कोई मेडिकल या दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया।

इसके अलावा, याचिकाकर्ता ने यह भी आरोप लगाया कि प्रतिवादी संख्या 5 ने 2015 में उसे महेश के साथ कमरे में बंद कर उसके यौन उत्पीड़न को अंजाम देने में सहायता की थी। लेकिन अदालत ने उसके बयानों में विरोधाभास पाया और कहा कि इस आरोप के समर्थन में कोई सबूत नहीं है। प्रतिवादी संख्या 5 द्वारा कथित तौर पर कहे गए शब्द— “काम हो गया?”—को अपराध में सक्रिय भागीदारी साबित करने के लिए अपर्याप्त माना गया।

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अदालत का निर्णय

निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखते हुए, जस्टिस अमित महाजन ने कहा:
“IPC की धारा 506 को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट होता है कि आपराधिक भयादोहन का अपराध साबित करने के लिए यह आवश्यक है कि आरोपी का उद्देश्य डर पैदा करना हो। केवल धमकी देना, बिना इस उद्देश्य के, अपराध नहीं माना जा सकता।”

अदालत ने पुनरीक्षण याचिका को खारिज कर दिया और यह स्पष्ट किया कि मुख्य आरोपी महेश के खिलाफ मामला जारी रहेगा, लेकिन प्रतिवादी संख्या 2 से 5 के खिलाफ कोई ठोस साक्ष्य न होने के कारण उन्हें बरी किया जाता है।

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