प्रक्रियात्मक निष्पक्षता को संबोधित करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश IX नियम 13 के तहत एकपक्षीय डिक्री को चुनौती देते समय विलंब क्षमा के लिए अलग से आवेदन करना अनावश्यक है, बशर्ते कि आवेदन में ही विलंब उचित हो। यह निर्णय SLP (C.) संख्या 11259/2022 से उत्पन्न सिविल अपील में आया, जिसमें अपीलकर्ता के एकपक्षीय रूप से खारिज किए गए मुकदमे का विरोध करने के अधिकार को बहाल किया गया।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि न्यायिक प्रक्रियाओं को न्याय प्रदान करना चाहिए और उन्हें अति-तकनीकी औपचारिकताओं तक सीमित नहीं किया जाना चाहिए। यह निर्णय इस बात की पुष्टि करता है कि न्यायालयों को मूल न्याय को प्राथमिकता देनी चाहिए, विशेष रूप से ऐसे मामलों में जहां वादी वकील की लापरवाही या प्रणालीगत बाधाओं के कारण पीड़ित होते हैं।
मामले की पृष्ठभूमि
यह विवाद प्रतिवादी पृथ्वी राज सिंह द्वारा दायर एक सिविल मुकदमे (ओ.एस. संख्या 81/1988) से उत्पन्न हुआ, जिसमें अपीलकर्ता द्वारिका प्रसाद (मृतक, कानूनी उत्तराधिकारियों द्वारा प्रतिनिधित्व) के पक्ष में निष्पादित बिक्री विलेख को रद्द करने की मांग की गई थी। प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि बिक्री विलेख अपीलकर्ता द्वारा धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त किया गया था।
उत्तर प्रदेश के कासगंज में ट्रायल कोर्ट ने 11 अप्रैल, 1994 को एक एकपक्षीय डिक्री पारित की, जिसमें अपीलकर्ता के अदालत में उपस्थित न होने के कारण बिक्री विलेख को शून्य और अमान्य घोषित किया गया। इसके बाद, अपीलकर्ता ने 31 अक्टूबर, 1994 को आदेश IX नियम 13 सीपीसी के तहत एक बहाली आवेदन दायर किया, जिसमें कहा गया कि उनके वकील की लापरवाही के कारण उन्हें कार्यवाही के बारे में पता नहीं था।
पुनर्स्थापना आवेदन को कई कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जो सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचने से पहले विभिन्न न्यायिक मंचों से गुजरा।
न्यायिक कालक्रम
1. ट्रायल कोर्ट का निर्णय (2000):
ट्रायल कोर्ट ने बहाली आवेदन को स्वीकार करते हुए माना कि अपीलकर्ता, एक अशिक्षित व्यक्ति, अपने वकील द्वारा उसे सूचित करने में विफल रहने के कारण एकपक्षीय डिक्री से अनभिज्ञ था। न्यायालय ने अपीलकर्ता को उसके वकील की लापरवाही के लिए दंडित करना अनुचित माना।
2. जिला न्यायालय पुनरीक्षण (2004):
प्रतिवादी ने धारा 115 सीपीसी के तहत एक पुनरीक्षण याचिका दायर की, जिसमें दावा किया गया कि बहाली याचिका समय-सीमा समाप्त हो गई थी। जिला न्यायालय ने ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि अपीलकर्ता सीमा अधिनियम की धारा 5 के तहत एक अलग विलंब क्षमा आवेदन दायर करने में विफल रहा।
3. हाईकोर्ट का फैसला (2022):
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जिला न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा, जिसमें कहा गया कि वैधानिक 30-दिवसीय सीमा अवधि से परे दायर किया गया बहाली आवेदन, एक अलग विलंब क्षमा आवेदन के बिना अमान्य था।
4. सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप (2024):
हाईकोर्ट के निर्णय से व्यथित होकर, अपीलकर्ता ने निचली अदालतों द्वारा अपनाई गई प्रक्रियात्मक कठोरता को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
मुख्य कानूनी मुद्दे
1. क्या आदेश IX नियम 13 सीपीसी के तहत एक अलग विलंब क्षमा आवेदन आवश्यक है?
सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि बहाली आवेदन में ही देरी के लिए वैध कारण बताए गए हैं तो एक अलग विलंब क्षमा आवेदन की आवश्यकता नहीं है। पीठ ने भागमल बनाम कुंवर लाल [(2010) 12 एससीसी 159] में अपने पिछले फैसले पर भरोसा किया, जिसमें कहा गया था कि प्रक्रियात्मक नियमों को मूल न्याय में बाधा नहीं डालनी चाहिए।
2. बहाली आवेदन दाखिल करने के लिए सीमा अवधि कब शुरू होती है?
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि सीमा अवधि उस तारीख से शुरू होती है जिस दिन आवेदक को डिक्री का ज्ञान होता है, जरूरी नहीं कि डिक्री की तारीख से। इस मामले में, अपीलकर्ता को 27 अक्टूबर, 1994 को एकपक्षीय डिक्री का पता चला, और उसने 31 अक्टूबर, 1994 को तुरंत बहाली आवेदन दायर किया।
3. क्या वकील की लापरवाही के कारण वादियों को नुकसान उठाना चाहिए?
न्यायालय ने रफीक बनाम मुंशीलाल [(1981) 2 एससीसी 788] से अपना रुख दोहराया, जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि वादियों, विशेष रूप से वंचित पृष्ठभूमि से आने वाले लोगों को उनके वकील की चूक के लिए दंडित नहीं किया जाना चाहिए। पीठ ने टिप्पणी की:
“पक्ष ने अपनी शक्ति में सब कुछ किया है… निश्चिंत हो सकता है कि उसे न तो हाईकोर्ट में जाकर यह पता लगाने की जरूरत है कि क्या हो रहा है… और न ही उसे वकील की निगरानी करनी है।”
4. क्या जिला न्यायालय ने अपने पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण किया?
सर्वोच्च न्यायालय ने जिला न्यायालय की ट्रायल कोर्ट के विवेकाधीन आदेश में हस्तक्षेप करने के लिए आलोचना की। पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि धारा 115 सीपीसी के तहत पुनरीक्षण शक्तियों का उपयोग मूल न्याय में बाधा डालने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, खासकर तब जब ट्रायल कोर्ट का फैसला वैध आधार पर आधारित हो।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों की अति-तकनीकी दृष्टिकोण अपनाने के लिए आलोचना करते हुए कहा:
“आखिरकार प्रक्रिया न्याय की दासी है।”
कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि प्रक्रियात्मक नियमों को निष्पक्ष परिणाम देने के लक्ष्य पर हावी नहीं होना चाहिए, खासकर तब जब प्रक्रियात्मक चूक वकील की लापरवाही या वादियों द्वारा सामना की जाने वाली प्रणालीगत बाधाओं के कारण होती है।
निर्णय की मुख्य बातें
ट्रायल कोर्ट के आदेश की बहाली:
सुप्रीम कोर्ट ने एकपक्षीय डिक्री को रद्द करने के ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल किया और निचली अदालत को मूल मुकदमे के साथ आगे बढ़ने का निर्देश दिया।
शीघ्र सुनवाई का निर्देश:
आगे की देरी को रोकने के लिए, कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को एक वर्ष के भीतर मामले को हल करने का आदेश दिया, जिसमें दोनों पक्षों से सहयोग करने का आग्रह किया गया।
प्रक्रियात्मक कठोरता की अस्वीकृति:
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पर्याप्त देरी स्पष्टीकरण के साथ बहाली आवेदनों के लिए अलग से माफ़ी आवेदन की आवश्यकता नहीं है, जो न्याय के साथ प्रक्रियात्मक लचीलेपन को संरेखित करता है।