एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट, लखनऊ पीठ ने मानसिक और शारीरिक क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग करने वाले पति की अपील को खारिज करते हुए कहा कि “विवाहित जीवन में सामान्य झड़प” को विवाह विच्छेद के लिए पर्याप्त आधार नहीं माना जा सकता। न्यायमूर्ति राजन रॉय और न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला की पीठ ने तलाक याचिका को खारिज करने के पारिवारिक न्यायालय के फैसले की पुष्टि की।
मामले की पृष्ठभूमि
मामला, प्रथम अपील संख्या 55/2021, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत शुरू किया गया था। अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि विवाह दबाव में किया गया था और मानसिक और शारीरिक क्रूरता के बराबर कई घटनाओं का दावा किया था। यह मामला पारिवारिक न्यायालय, फैजाबाद द्वारा 2020 में खारिज की गई याचिका से उत्पन्न हुआ था।
अपीलकर्ता का प्रतिनिधित्व श्रीमती निशा श्रीवास्तव और उनकी कानूनी टीम ने किया, जबकि श्री सूर्य प्रकाश सिंह ने प्रतिवादी की ओर से बहस की।
पति के आरोप
अपीलकर्ता ने आरोप लगाया कि:
1. 2015 में प्रतिवादी के पिता की मृत्यु के बाद विवाह को जबरन करवाया गया था।
2. प्रतिवादी ने उस पर प्रतिबंध लगाए, उसे अपने परिवार या सहकर्मियों से मिलने से मना किया।
3. उसने सहकर्मियों के साथ उसके संबंधों के बारे में निराधार आरोप लगाए और उस पर लापता होने का आरोप लगाते हुए झूठी पुलिस शिकायतें दर्ज कराईं।
4. उसने अपने भाई की सहायता से उसे जबरन वसूली और ब्लैकमेल करने के लिए अश्लील तस्वीरें और वीडियो कैप्चर किए और उनमें हेरफेर किया।
5. उसने शारीरिक हिंसा का सहारा लिया, जिसमें उस पर हमला करना और उसकी सुरक्षा को खतरे में डालना शामिल था।
6. आईपीसी की धारा 498ए और 377 के तहत पुलिस शिकायत सहित कई झूठी शिकायतें दर्ज की गईं, जिससे उसे काफी मानसिक पीड़ा हुई।
अपीलकर्ता ने दावा किया कि इन घटनाओं ने उसे भावनात्मक और शारीरिक रूप से थका दिया, जिसके परिणामस्वरूप उसे गंभीर उच्च रक्तचाप और हृदय रोग हो गया।
प्रतिवादी का बचाव
प्रतिवादी ने अपने प्रतिवाद में सभी आरोपों का खंडन किया और कहा कि:
1. विवाह सहमति से हुआ था और उसकी इच्छा के अनुसार किया गया था।
2. अपीलकर्ता ने विवाह के वादे के तहत विवाह से पहले उसके साथ शारीरिक संबंध स्थापित किए थे।
3. वह शारीरिक और मानसिक शोषण की शिकार थी, जैसा कि घरेलू हिंसा के एक मामले में दर्ज है, जहां पारिवारिक न्यायालय ने उसे मुआवजा और मासिक भरण-पोषण दिया था।
4. अपीलकर्ता ने उसे परेशान करते हुए निराधार दावों के साथ न्यायालय को गुमराह करने की कोशिश की।
न्यायालय की टिप्पणियां
हाईकोर्ट ने दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य की सावधानीपूर्वक जांच की। इसने समर घोष बनाम जया घोष (2007) में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले का हवाला दिया, जिसमें वैवाहिक विवादों में “मानसिक क्रूरता” के उदाहरणों की गणना की गई है। हालांकि, न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ता विवाहित जीवन की सामान्य चुनौतियों से परे क्रूरता के निरंतर और गंभीर उदाहरणों को प्रदर्शित करने में विफल रहा।
फैसले का हवाला देते हुए, अदालत ने कहा:
“अपीलकर्ता/पति द्वारा लगाए गए क्रूरता के संबंध में आरोप विवाहित जीवन में सामान्य टूट-फूट के अलावा और कुछ नहीं हैं। बुरा व्यवहार काफी लंबे समय तक जारी रहना चाहिए, जहां रिश्ता इस हद तक खराब हो गया हो कि पीड़ित पक्ष के लिए दूसरे पक्ष के साथ रहना बेहद मुश्किल हो जाए।”
अदालत ने यह भी देखा कि पारिवारिक न्यायालय के निष्कर्ष तर्कसंगत थे, खासकर अस्पष्ट और सामान्य आरोपों को खारिज करने में। इसने नोट किया कि अपीलकर्ता के दावों को पर्याप्त सबूतों से समर्थन नहीं मिला, जिसमें पुलिस को शारीरिक हमले जैसी महत्वपूर्ण घटनाओं की रिपोर्ट करने में विफलता भी शामिल है।
अपील को खारिज करते हुए, पीठ ने कहा:
“अपीलकर्ता/पति की दलीलें इतनी गंभीर और वजनदार नहीं हैं कि विवाह को भंग किया जा सके। पारिवारिक न्यायालय के तर्कसंगत निष्कर्षों में हस्तक्षेप करने का कोई मामला नहीं बनता।”
अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि वैवाहिक कलह दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन विवाह में हर असहमति या चुनौती तलाक की मांग करने वाली क्रूरता के रूप में योग्य नहीं है। अपीलकर्ता की अपील खारिज कर दी गई, दोनों पक्षों को अपना-अपना खर्च स्वयं वहन करना होगा।