एक ऐतिहासिक फैसले में, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने घोषित किया है कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले नाबालिग भारतीय कानून के तहत अनुबंध करने में अक्षम होने के कारण न्यायालय से कानूनी सुरक्षा मांगने के हकदार नहीं हैं। यह फैसला न्यायमूर्ति सुरेश्वर ठाकुर और न्यायमूर्ति सुदीप्ति शर्मा की खंडपीठ ने सीआरडब्ल्यूपी संख्या 4660/2021, सीआरडब्ल्यूपी संख्या 149/2024 और एलपीए संख्या 968/2021 से जुड़े एक मामले में सुनाया।
मामले की पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ताओं ने दो अलग-अलग मामलों (सीआरडब्ल्यूपी संख्या 4660/2021 और सीआरडब्ल्यूपी संख्या 149/2024) में अपने लिव-इन रिलेशनशिप के कारण अपने-अपने परिवारों से खतरे का दावा करते हुए अपने जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए न्यायालय से निर्देश मांगे। पहली याचिका में एक ऐसे व्यक्ति का मामला था जो पहले से ही शादीशुदा है, लेकिन दूसरी महिला के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहा है, और तलाक लेने के बाद उससे शादी करने का इरादा रखता है। दूसरे मामले में भी एक महिला शामिल थी जो कानूनी रूप से विवाहित होने के बावजूद दूसरे पुरुष के साथ लिव-इन रिलेशनशिप में थी।
तीसरा मामला (एलपीए संख्या 968, 2021) 31 अगस्त, 2021 के पिछले आदेश को चुनौती देने वाली अपील थी, जिसमें लिव-इन जोड़े के लिए जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा की मांग करने वाली एक समान याचिका को खारिज कर दिया गया था, जिसमें अपीलकर्ता पर लागत लगाई गई थी।
शामिल कानूनी मुद्दे
अदालत के समक्ष मुख्य कानूनी मुद्दा यह था कि क्या नाबालिग या पहले से ही कानूनी रूप से बाध्यकारी विवाह में रहने वाले व्यक्ति लिव-इन रिलेशनशिप में रहते हुए अपने जीवन और स्वतंत्रता के लिए अदालत से सुरक्षा मांग सकते हैं। अदालत ने इस बात पर भी विचार किया कि क्या ऐसी सुरक्षा प्रदान करने से मौजूदा विवाह की पवित्रता कम होगी और सार्वजनिक नीति के साथ टकराव होगा।
अदालत ने समन्वय शक्ति की विभिन्न पीठों के पिछले निर्णयों की एक श्रृंखला की जांच की, जिसमें इस बात पर परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत किए गए थे कि क्या लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले व्यक्तियों, जहां एक साथी पहले से ही विवाहित है, को सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए।
न्यायालय का निर्णय
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने माना कि नाबालिग लिव-इन रिलेशनशिप में प्रवेश नहीं कर सकते, क्योंकि उनमें अनुबंध करने की कानूनी क्षमता नहीं है। न्यायालय ने कहा, “नाबालिग अनुबंध करने में अक्षम हैं, और इस तरह, वे लिव-इन पार्टनर की स्थिति का दावा नहीं कर सकते, जो वयस्कों के बीच सहमति से किए गए अनुबंध पर आधारित है।”
पीठ ने आगे जोर दिया कि ऐसे संबंधों की रक्षा करना सार्वजनिक नीति का उल्लंघन होगा, खासकर तब जब पक्षों में से एक पहले से ही विवाहित हो। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे लिव-इन रिलेशनशिप, जिनमें एक साथी विवाहित है, को कानूनी मान्यता नहीं मिलती है, और ऐसे मामलों में कोई भी सुरक्षा आदेश कानून के विपरीत होगा।
न्यायालय द्वारा की गई मुख्य टिप्पणियाँ
अपने निर्णय में न्यायालय ने कहा:
1. “जहां एक साथ रहने वाले दो व्यक्ति अपने जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा चाहते हैं, तो न्यायालय को उनकी वैवाहिक स्थिति और उस मामले की अन्य परिस्थितियों की जांच किए बिना उन्हें सुरक्षा प्रदान करने की आवश्यकता नहीं है।”
2. “संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार ऐसे रिश्ते को वैध या संरक्षित करने तक विस्तारित नहीं है जो स्वाभाविक रूप से मौजूदा कानूनी मानदंडों का उल्लंघन करता है, खासकर जब पक्षों में से एक नाबालिग हो या पहले से ही विवाहित हो।”
3. “नाबालिगों के पास ऐसी व्यवस्थाओं के लिए सहमति देने की कानूनी क्षमता नहीं है, और ऐसे रिश्तों को मान्यता देना या संरक्षित करना एक खतरनाक मिसाल कायम करेगा।”
इस मामले पर श्री पी.एस. अहलूवालिया, अधिवक्ता ने बहस की, जिन्हें अदालत की सहायता के लिए एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया गया था। राज्य का प्रतिनिधित्व हरियाणा के अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री पवन गिरधर, पंजाब के अतिरिक्त महाधिवक्ता श्री मनिंदरजीत सिंह बेदी और भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल श्री सत्य पाल जैन ने किया, जिनकी सहायता केंद्र सरकार की वकील सुश्री नेहा शर्मा ने की।