जम्मू-कश्मीर और लद्दाख हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत अंतरिम मुआवजा देने में तर्कसंगत न्यायिक विवेक के महत्व पर जोर दिया है। मुजीब उल अशरफ डार बनाम मुश्ताक अहमद वानी (सीआरएम (एम) संख्या 144/2024) के मामले की अध्यक्षता कर रहे न्यायमूर्ति संजय धर ने निचली अदालत के उस आदेश को खारिज कर दिया, जिसमें पर्याप्त औचित्य प्रदान किए बिना अधिकतम अंतरिम मुआवजा दिया गया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला मुश्ताक अहमद वानी द्वारा मुजीब उल अशरफ डार के खिलाफ परक्राम्य लिखत अधिनियम के तहत एक अनादरित चेक के लिए दायर की गई शिकायत से उत्पन्न हुआ था। 20 नवंबर, 2023 को श्रीनगर में न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी) ने अधिनियम की धारा 143-ए के तहत शिकायतकर्ता को चेक राशि (4 लाख रुपये) का 20% अंतरिम मुआवजा देने का आदेश दिया। डार, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता आतिर कवूसा ने किया, ने इस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दी, जबकि वानी का प्रतिनिधित्व अधिवक्ता एफ. ए. वैदा ने किया।
कानूनी मुद्दे और न्यायालय का निर्णय
हाईकोर्ट के समक्ष प्राथमिक मुद्दा यह था कि क्या मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकतम स्वीकार्य अंतरिम मुआवजा देने का आदेश कानूनी रूप से सही था। न्यायमूर्ति धर ने 15 जुलाई, 2024 को दिए गए अपने आदेश में कई प्रमुख बिंदुओं की पहचान की:
1. धारा 143-ए की विवेकाधीन प्रकृति: न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इस धारा के तहत अंतरिम मुआवजा देने की शक्ति विवेकाधीन है, अनिवार्य नहीं। न्यायमूर्ति धर ने कहा, “यह स्थापित कानून है कि एन.आई. अधिनियम की धारा 143-ए के अनुसार अंतरिम मुआवजा देने की शक्ति विवेकाधीन प्रकृति की है। इस विवेक का प्रयोग वैध कारणों के आधार पर किया जाना चाहिए, जिसके अभाव में विवेक का प्रयोग मनमाना हो जाता है।”
2. तर्कसंगत आदेशों की आवश्यकता: हाईकोर्ट ने अंतरिम मुआवजा देने के लिए स्पष्ट कारण प्रदान करने के महत्व पर जोर दिया। न्यायमूर्ति धर ने कहा, “विद्वान मजिस्ट्रेट से अपेक्षा की जाती है कि वह अंतरिम मुआवजे की राशि को उचित ठहराए, क्योंकि यह चेक राशि के 1% से 20% तक हो सकती है। ऐसे कारणों के अभाव में विवादित आदेश कानून में टिकने योग्य नहीं रह जाता।”
3. प्रासंगिक कारकों पर विचार: राकेश रंजन श्रीवास्तव बनाम झारखंड राज्य (2024) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का हवाला देते हुए, न्यायमूर्ति धर ने अंतरिम मुआवजा देने के मापदंडों को रेखांकित किया। इनमें शिकायतकर्ता के मामले की योग्यता, अभियुक्त का बचाव, लेन-देन की प्रकृति और पक्षों के बीच संबंधों का मूल्यांकन शामिल है।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
न्यायमूर्ति धर ने कई उल्लेखनीय टिप्पणियाँ कीं:
“आक्षेपित आदेश का अवलोकन करने से पता चलता है कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी/शिकायतकर्ता के पक्ष में चेक राशि के 20% की सीमा तक अंतरिम मुआवज़ा देने का आदेश दिया है। हालाँकि, आदेश की विषय-वस्तु से यह स्पष्ट नहीं होता है कि विद्वान मजिस्ट्रेट ने एन.आई. अधिनियम की धारा 143 ए के प्रावधान के तहत किस आधार पर अंतरिम मुआवज़े की अधिकतम राशि देने का आदेश दिया है।”
“सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है कि अंतरिम मुआवज़े की मात्रा तय करते समय, मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करना होगा और उसे कई कारकों पर विचार करना होगा जैसे कि लेन-देन की प्रकृति, अभियुक्त और शिकायतकर्ता के बीच कोई संबंध आदि।”
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निष्कर्ष
हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया, मजिस्ट्रेट के आदेश को रद्द कर दिया और अंतरिम मुआवजे के लिए आवेदन पर नए सिरे से विचार करने का निर्देश दिया।