दिल्ली हाईकोर्ट ने 1984 सिख विरोधी दंगों से जुड़े गाज़ियाबाद के राज नगर इलाके में हरभजन सिंह की हत्या के मामले में पुनः सुनवाई (री-ट्रायल) के आदेश दिए हैं। अदालत ने चेतावनी दी कि यदि निष्पक्ष जांच और सुनवाई सुनिश्चित नहीं की गई तो इससे “हमारी न्याय व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठ सकता है और समाज के हितों को क्षति पहुंच सकती है।”
न्यायमूर्ति सुब्रमोनियम प्रसाद और न्यायमूर्ति हरीश वैद्यनाथन शंकर की पीठ ने 11 अगस्त को यह आदेश पारित किया। अदालत ने स्वतः संज्ञान लेते हुए 1986 के निचली अदालत के फैसले की जांच की, और पाया कि जांच तथा पूर्व कार्यवाही दोनों में गंभीर खामियां थीं और सुनवाई “जल्दबाजी” में की गई थी।
अदालत ने कहा कि निचली अदालत का त्रुटिपूर्ण निर्णय पीड़ित की पत्नी और बच्चों के लिए “न्याय का हनन” था, जिससे उन्हें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निष्पक्ष सुनवाई का मौलिक अधिकार नहीं मिल सका।

“हत्या और आगजनी जैसे गंभीर अपराध, जिनमें साम्प्रदायिक रंग था, की न तो ठीक से जांच हुई और न ही उचित तरीके से सुनवाई। यदि इसे सुधारा नहीं गया तो यह हमारी न्याय व्यवस्था में लोगों के भरोसे को खत्म कर सकता है,” अदालत ने कहा।
सीबीआई की जांच पर सवाल
हाईकोर्ट ने केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) को कड़ी फटकार लगाते हुए कहा कि उसने सबूत जुटाने के पर्याप्त प्रयास नहीं किए। अदालत ने कहा कि प्रमुख गवाहों—जिनमें मृतक के बच्चे और वे पड़ोसी शामिल थे जिन्होंने हमले के बाद पीड़ित परिवार को शरण दी—को जांच में शामिल ही नहीं किया गया। न तो हरभजन सिंह का शव तलाशा गया और न ही घर से लूटे गए सामान को बरामद करने का प्रयास हुआ।
घटना उस समय की है जब पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद भड़के दंगों में हिंसा फैली थी। अभियोजन के अनुसार, मृतक की पत्नी ने आरोप लगाया था कि भीड़ ने उनके पति और घर को आग लगा दी, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन मई 1986 में ट्रायल कोर्ट ने चारों आरोपियों को बरी कर दिया, यह कहते हुए कि महिला के बयानों में विरोधाभास था और शिकायत दर्ज कराने में देरी हुई थी।
‘असाधारण मामला’ बताकर दिया पुनः सुनवाई का आदेश
घटना को 40 वर्ष से अधिक बीत जाने के बावजूद हाईकोर्ट ने कहा कि यह “निस्संदेह असाधारण मामला” है, जिसमें 1986 के बरी करने के आदेश को रद्द कर पुनः सुनवाई का निर्देश दिया जाना चाहिए।
“अन्यथा, यह समाज की आवश्यकताओं और पीड़ितों के अधिकारों पर आंख मूंद लेने जैसा होगा,” अदालत ने कहा और सीबीआई को उपलब्ध सबूतों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ प्रयास से आगे की जांच करने का निर्देश दिया।
अमाइकस क्यूरी वरिष्ठ अधिवक्ता विवेक सूद ने अदालत को बताया कि 1984 में हिंसा के पैमाने के कारण विधवाएं, बच्चे और स्थानीय लोग अपनी सुरक्षा के लिए भाग गए थे, जिससे तत्कालीन जांच में कठिनाई हुई। हालांकि, अदालत ने स्पष्ट किया कि यह जांच एजेंसी के दायित्व से मुक्ति का आधार नहीं हो सकता और उसे दंड प्रक्रिया संहिता के तहत उपलब्ध शक्तियों का उपयोग कर सर्वोत्तम सबूत जुटाने थे।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि जांच एजेंसी और निचली अदालत—दोनों ने अपने कर्तव्यों में चूक की है और इस तरह की चूक का लाभ आरोपियों को नहीं मिलना चाहिए।