कामकाजी पत्नी भी गुजारा भत्ता की हकदार, अगर आय जीवन स्तर बनाए रखने के लिए अपर्याप्त है: दिल्ली हाईकोर्ट

दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि एक कामकाजी पत्नी भी अपने पति से गुजारा भत्ता पाने की हकदार है, यदि उसकी आय उस जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए अपर्याप्त है जिसकी वह अपने वैवाहिक घर में आदी थी। न्यायमूर्ति नवीन चावला और न्यायमूर्ति रेनू भटनागर की खंडपीठ ने एक फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें एक सहायक प्रोफेसर पत्नी को गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया गया था। हाईकोर्ट ने पत्नी और उसकी नाबालिग बेटी के लिए मासिक गुजारा भत्ता 35,000 रुपये से बढ़ाकर 1,50,000 रुपये कर दिया। यह फैसला पति-पत्नी की आय में भारी अंतर को देखते हुए दिया गया, जहाँ पति अमेरिका स्थित एक टेक कंपनी में एक वरिष्ठ कंप्यूटर वैज्ञानिक है।

मामले की पृष्ठभूमि

यह अपील पत्नी द्वारा 1 मार्च, 2024 को तीस हजारी स्थित फैमिली कोर्ट के एक आदेश के खिलाफ दायर की गई थी। दोनों का विवाह 22 नवंबर, 2013 को हुआ था और उनकी एक बेटी है जिसका जन्म 8 अगस्त, 2016 को हुआ। वैवाहिक कलह के कारण, वे अक्टूबर 2019 से अलग रह रहे हैं, और नाबालिग बच्ची अपनी माँ की देखरेख में है।

पति ने क्रूरता के आधार पर तलाक के लिए अर्जी दी थी। इसी कार्यवाही के दौरान, पत्नी ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (HMA) की धारा 24 के तहत अपने और अपनी बेटी के लिए अंतरिम गुजारा भत्ते की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया। उसने तर्क दिया कि उसे वैवाहिक घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और अब वह अपने माता-पिता के साथ रह रही है। यद्यपि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में सहायक प्रोफेसर के रूप में कार्यरत है, लेकिन उसकी आय उसके पति की पर्याप्त कमाई की तुलना में सीमित है।

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फैमिली कोर्ट ने नाबालिग बेटी के लिए सभी स्कूल-संबंधी खर्चों के साथ 35,000 रुपये प्रति माह का गुजारा भत्ता दिया था, लेकिन पत्नी के स्वयं के गुजारा भत्ते के दावे को खारिज कर दिया था। इससे असंतुष्ट होकर, उसने अपने और अपनी बेटी के गुजारा भत्ते में वृद्धि के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

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पक्षकारों की दलीलें

अपीलकर्ता-पत्नी की दलीलें: अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि फैमिली कोर्ट दोनों पक्षों के बीच भारी वित्तीय असमानता को समझने में विफल रहा। उसके वकील ने कहा कि जहाँ उसकी मासिक आय लगभग 1,25,000 रुपये है, वहीं पति की वार्षिक आय 1.5 करोड़ रुपये से अधिक है, साथ ही उसे अन्य भत्ते, RSU और अन्य लाभ भी मिलते हैं। यह तर्क दिया गया कि फैमिली कोर्ट ने पति की 10 लाख रुपये प्रति माह से अधिक की आय को स्वीकार करने के बावजूद बिना किसी ठोस कारण के उसके गुजारा भत्ते को अस्वीकार कर दिया। अपीलकर्ता ने जोर देकर कहा कि वह उस जीवन स्तर को बनाए रखने के लिए गुजारा भत्ते की हकदार है जिसकी वह शादी के दौरान आदी थी और बच्चे के लिए दी गई राशि “स्पष्ट रूप से अपर्याप्त” थी।

प्रतिवादी-पति की दलीलें: प्रतिवादी के वकील ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता एक उच्च योग्य व्यक्ति है जो अपना भरण-पोषण करने में सक्षम है और गुजारा भत्ते की हकदार नहीं है। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के ममता जायसवाल बनाम राजेश जायसवाल मामले का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि धारा 24 का उद्देश्य “आलसी लोगों की फौज बनाना” नहीं है। उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के रूपाली गुप्ता बनाम रजत गुप्ता और निहारिका घोष बनाम शंकर घोष के फैसलों पर भी भरोसा किया, जहाँ कामकाजी पत्नियों को गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया गया था। वकील ने यह भी कहा कि पति ने बच्चे के भरण-पोषण के लिए लगातार पर्याप्त योगदान दिया है और पूरा वित्तीय बोझ उस पर नहीं डाला जा सकता।

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हाईकोर्ट का विश्लेषण और निष्कर्ष

हाईकोर्ट फैमिली कोर्ट के तर्क से असहमत था। न्यायमूर्ति रेनू भटनागर द्वारा लिखे गए फैसले में कहा गया कि मुख्य मुद्दा यह था कि क्या पत्नी को गुजारा भत्ता देने से इनकार करना सही था और क्या बच्चे के गुजारा भत्ते में वृद्धि की आवश्यकता है।

पीठ ने कहा, “HMA की धारा 24 के तहत किसी दावे का आकलन करते समय, निर्णायक परीक्षण केवल यह नहीं है कि पत्नी नौकरी करती है या कमाने में सक्षम है, बल्कि यह है कि क्या उसकी आय उसे उसी जीवन स्तर को बनाए रखने में सक्षम बनाने के लिए पर्याप्त है जिसकी वह सहवास के दौरान आदी थी।”

अदालत ने प्रतिवादी की आय को “अपीलकर्ता की आय का लगभग दस गुना” बताते हुए “भारी” वित्तीय असमानता पर ध्यान दिया। अदालत ने जोर देकर कहा कि अंतरिम गुजारा भत्ते का उद्देश्य जीवन शैली में निष्पक्षता और समानता सुनिश्चित करना है। फैसले में कहा गया है, “अंतरिम गुजारा भत्ते का उद्देश्य एक उचित संतुलन बनाना और जीवन शैली में समानता सुनिश्चित करना है, ताकि आर्थिक रूप से कमजोर पति या पत्नी और बच्चे को दूसरे के आर्थिक लाभ से कोई पूर्वाग्रह न हो।”

अदालत ने चतुर्भुज बनाम सीता बाई (2008) और रजनीश बनाम नेहा (2021) सहित सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला दिया, जिन्होंने यह स्थापित किया कि एक कामकाजी पत्नी को गुजारा भत्ता का दावा करने से रोका नहीं जा सकता है। निर्णायक कारक यह है कि क्या उसकी आय वैवाहिक घर के जीवन स्तर के अनुसार खुद को बनाए रखने के लिए पर्याप्त है।

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इन सिद्धांतों को लागू करते हुए, हाईकोर्ट ने पाया कि अपीलकर्ता की आय प्रतिवादी की कमाई के “पैमाने और विविधता” के बराबर नहीं थी, जिसमें 1 करोड़ रुपये से अधिक की वार्षिक आय, RSU और अन्य लाभ शामिल थे। अदालत ने माना कि फैमिली कोर्ट ने “दोनों पक्षों की आर्थिक स्थिति के बीच गुणात्मक अंतर” पर विचार किए बिना पत्नी की आय को पर्याप्त मानकर गलती की थी।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला, “यह तथ्य कि अपीलकर्ता कमा रही है, उसे गुजारा भत्ता का दावा करने से वंचित नहीं करता है, क्योंकि वह उसी जीवन स्तर की हकदार है जिसका उसने अपने वैवाहिक जीवन के दौरान आनंद लिया था।”

फैसला

अपने विश्लेषण के आधार पर, दिल्ली हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के आदेश को संशोधित किया। इसने पत्नी और बच्चे के लिए कुल गुजारा भत्ते की राशि को बढ़ाकर 1,50,000 रुपये प्रति माह कर दिया। प्रतिवादी द्वारा स्कूल खर्चों के भुगतान सहित मूल आदेश के अन्य सभी निर्देश अपरिवर्तित रहेंगे। इन संशोधनों के साथ अपील का निस्तारण कर दिया गया।

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