यदि एकमात्र गवाह को अपने ही हलफनामे की जानकारी नहीं, तो वसीयत को सही नहीं माना जा सकता: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि वसीयत का एकमात्र सत्यापन गवाह (Attesting Witness) यह स्वीकार करता है कि उसका मुख्य हलफनामा (Examination-in-Chief) उसके निर्देशों पर तैयार नहीं किया गया था और उसे इसकी सामग्री की जानकारी नहीं है, तो ऐसी वसीयत को कानूनी रूप से वैध नहीं माना जा सकता।

जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस विपुल एम. पंचोली की पीठ ने कहा कि वसीयत को साबित करने के लिए गवाह की विश्वसनीयता अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि गवाह की विश्वसनीयता पर “जरा सा भी संदेह” होता है, तो कोर्ट के लिए वसीयत को स्वीकार करना कठिन हो जाता है।

इस आधार पर शीर्ष अदालत ने उस अपील को खारिज कर दिया, जिसमें 1999 की एक वसीयत के आधार पर अपीलकर्ता को मूल वादी (Original Plaintiff) का कानूनी वारिस बनाने की मांग की गई थी।

मामले की पृष्ठभूमि

यह विवाद 1983 में दायर एक मुकदमे (O.S. No. 213 of 1983) से शुरू हुआ था, जो अवन्तकर कमला बाई ने अपने ही बेटे बल्लेरा कन्ना राव के खिलाफ दायर किया था। मां ने संपत्ति के मालिकाना हक, कब्जे और किराए की वसूली के लिए यह मुकदमा किया था।

29 मार्च, 1989 को नेल्लोर के सबऑर्डिनेट जज की अदालत ने आंशिक रूप से वादी (मां) के पक्ष में फैसला सुनाया। कोर्ट ने बेटे को निर्देश दिया कि वह संपत्ति का एक हिस्सा मां को सौंपे या किराएदार से किराया मां को देने के लिए कहे।

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इस फैसले के खिलाफ वादी ने हाईकोर्ट में अपील (A.S. No. 2466/1989) दायर की। अपील के लंबित रहने के दौरान, 8 अक्टूबर 2002 को मूल वादी का निधन हो गया। इसके बाद, वर्तमान अपीलकर्ता ने सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) के आदेश 22 नियम 3 के तहत एक आवेदन दायर किया और 11 मार्च, 1999 की वसीयत के आधार पर खुद को कानूनी प्रतिनिधि के रूप में शामिल करने की मांग की।

हाईकोर्ट ने वसीयत की जांच के आदेश दिए। हालांकि निचली अदालत ने वसीयत को सही बताया था, लेकिन हाईकोर्ट ने गवाहों के बयानों का विश्लेषण करने के बाद अपीलकर्ता को उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दलीलें

अपीलकर्ता की ओर से पेश वकील सुश्री जयकृति एस. जडेजा ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने गवाह (PW-5) के पूरे बयान को नजरअंदाज करके गलती की है। उन्होंने कहा कि भले ही मुख्य परीक्षा (Examination-in-Chief) गवाह के निर्देशों पर रिकॉर्ड न हुई हो, लेकिन जिरह (Cross-examination) में उसने वसीयत के सत्यापन को साबित किया है।

दूसरी ओर, प्रतिवादी के वरिष्ठ वकील श्री एल. नरसिम्हा रेड्डी ने हाईकोर्ट के फैसले का समर्थन किया। उन्होंने तर्क दिया कि जब गवाह को अपने ही मुख्य हलफनामे की जानकारी नहीं है, तो उसकी गवाही पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

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कोर्ट का विश्लेषण और निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने मामले में एकमात्र सत्यापन गवाह PW-5 (शेख जानी बाशा) की गवाही की बारीकी से जांच की। भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 63(c) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 68 के तहत वसीयत साबित करने के लिए कम से कम एक गवाह का होना अनिवार्य है।

कोर्ट ने PW-5 द्वारा जिरह में दी गई उस स्वीकारोक्ति को उद्धृत किया जिसने पूरा मामला बदल दिया:

“मैंने अपना मुख्य हलफनामा तैयार करने के लिए निर्देश नहीं दिए थे। मैं नहीं कह सकता कि मेरा मुख्य हलफनामा तैयार करने के लिए किसने निर्देश दिए। मुझे अपने मुख्य हलफनामे की सामग्री (Contents) के बारे में नहीं पता।”

इसके अलावा, गवाह ने बाद में यह भी कहा कि उसे “वसीयत की सामग्री के बारे में भी नहीं पता।”

पीठ ने अपीलकर्ता की दलीलों को खारिज करते हुए कहा:

“वसीयत के निष्पादन को साबित करने के लिए एक सत्यापन गवाह का परीक्षण अनिवार्य है। हालांकि, जब एकमात्र गवाह कोर्ट के सामने यह स्वीकार करता है कि उसका मुख्य हलफनामा उसके निर्देशों के तहत रिकॉर्ड नहीं किया गया था और न ही उसे इसकी सामग्री का पता है, तो जिरह में उसके बयान का साक्ष्य मूल्य (Evidentiary Value) गंभीर रूप से कम हो जाता है।”

कोर्ट ने यह भी कहा कि भले ही गवाह को वसीयत की सामग्री का पता होना जरूरी नहीं है, लेकिन उसे कोर्ट में यह स्पष्ट करना चाहिए कि उसका मुख्य हलफनामा उसके निर्देशों पर ही बना है, ताकि एक सच्चे गवाह के रूप में उसकी विश्वसनीयता आंकी जा सके।

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निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि 11 मार्च, 1999 की वसीयत साबित नहीं हुई है, इसलिए अपीलकर्ता को मूल वादी का कानूनी वारिस नहीं बनाया जा सकता। अपील खारिज कर दी गई।

हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इस फैसले से 1989 का ट्रायल कोर्ट का वह फैसला प्रभावित नहीं होगा जो मूल वादी (मां) के पक्ष में था, क्योंकि बेटे ने उस फैसले को चुनौती नहीं दी थी। साथ ही, मूल वादी की मृत्यु के बाद खुलने वाला प्राकृतिक उत्तराधिकार (Natural Succession) भी इससे प्रभावित नहीं होगा।

केस का विवरण

केस टाइटल: ए. कमला बाई (मृत) जरिए विधिक प्रतिनिधि बनाम बी. कन्ना राव (मृत) जरिए विधिक प्रतिनिधि

केस नंबर: सिविल अपील संख्या 136/2013

कोरम: जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और जस्टिस विपुल एम. पंचोली

अपीलकर्ता के वकील: सुश्री जयकृति एस. जडेजा, एओआर

प्रतिवादी के वकील: श्री एल. नरसिम्हा रेड्डी, वरिष्ठ अधिवक्ता; श्री वी. एन. रघुपति, एओआर

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