नए वक्फ कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर चल रही सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई के दौरान सारा फोकस एक अहम क्लॉज—‘वक्फ बाय यूजर’—पर आकर टिक गया है। मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना से लेकर वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी तक, कई पक्षों ने सरकार द्वारा इस क्लॉज में बदलाव पर सवाल उठाए हैं। कोर्ट ने अब गुरुवार को इस मुद्दे पर विशेष सुनवाई तय की है, जिसमें केंद्र सरकार अपनी दलीलें पेश करेगी। ऐसे में यह जानना जरूरी हो गया है कि ‘वक्फ बाय यूजर’ आखिर है क्या, और यह इतना विवादास्पद मुद्दा क्यों बन गया है।
बहस की शुरुआत: एक अहम सवाल
सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने सबसे पहले इस मसले को उठाते हुए कहा, “‘वक्फ बाय यूजर’ एक महत्वपूर्ण आधार है, जिसके तहत किसी संपत्ति को वक्फ माना जाता है। मान लीजिए मेरे पास एक ज़मीन है और मैं उस पर एक अनाथालय बनाता हूं—तो इसमें क्या दिक्कत है? यह मेरी ज़मीन है और मैं इसे सामाजिक उद्देश्य के लिए उपयोग कर रहा हूं। फिर सरकार पंजीकरण की ज़िद क्यों कर रही है?”
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा कि हालांकि पंजीकरण से रिकॉर्ड रखने में आसानी होती है, लेकिन सरकार ने ‘वक्फ बाय यूजर’ के प्रावधान को लगभग हटा ही दिया है। यह बात कोर्ट के कई सदस्यों को चिंतित करने लगी।

न्यायाधीश की टिप्पणी: पंजीकरण का कानूनी उद्देश्य
जस्टिस एस. वी. एन. भट्टी ने स्पष्ट किया कि “कानून पंजीकरण की अनिवार्यता इसलिए करता है ताकि धोखाधड़ी के दावों को रोका जा सके।” इसके लिए वक्फ डीड का होना आवश्यक माना गया है। लेकिन इस पर कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि यह व्यावहारिक नहीं है। उन्होंने कहा, “कई वक्फ संपत्तियां सैकड़ों साल पुरानी हैं। सरकार अब कैसे अपेक्षा कर सकती है कि लोग 300 साल पुराने दस्तावेज़ लेकर आएं?”
कोर्ट ने इस मसले की जटिलता को मानते हुए कहा कि यह विषय गहन जांच का पात्र है। इसी वजह से ‘वक्फ बाय यूजर’ पर विस्तृत बहस के लिए अलग से सुनवाई रखी गई है।
‘वक्फ बाय यूजर’ आखिर है क्या?
इस्लामिक परंपरा में वक्फ का अर्थ होता है किसी संपत्ति—जैसे ज़मीन या इमारत—को स्थायी रूप से धार्मिक या परोपकारी उद्देश्यों के लिए अल्लाह के नाम पर समर्पित करना। इस विचारधारा में संपत्ति को अब व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज की सेवा के लिए उपयोग में लाया जाता है—जैसे मस्जिद, स्कूल, अस्पताल या गरीबों के लिए आश्रयगृह।
‘वक्फ बाय यूजर’ एक ऐसा तरीका है जिसमें व्यक्ति उस संपत्ति का उपयोग धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए करता है, लेकिन औपचारिक रूप से उसका स्वामित्व सरकार के समक्ष स्थानांतरित या पंजीकृत नहीं करता। यह एक सामाजिक और धार्मिक मान्यता के आधार पर संचालित परंपरा है, जहां उपयोगकर्ता स्वयं को मालिक नहीं मानता बल्कि वक्फ उद्देश्यों के लिए ‘उपयोगकर्ता’ बना रहता है।
मूल कानूनी विवाद
सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मूल सवाल यह है कि क्या ऐसी ऐतिहासिक परंपराओं के तहत उपयोग की गई, लेकिन अप्रमाणित संपत्तियों को कानून के तहत मान्यता दी जा सकती है? संशोधन के आलोचक कहते हैं कि ‘वक्फ बाय यूजर’ को हटाने से हजारों संपत्तियां अवैध मानी जाएंगी, जिनका वर्षों से धार्मिक या सामाजिक उद्देश्य से उपयोग होता रहा है—खासकर ग्रामीण और दस्तावेज़ रहित क्षेत्रों में।
सरकार का तर्क है कि बिना पंजीकरण के दावे अक्सर दुरुपयोग, ज़मीन विवाद और प्रशासनिक अराजकता को जन्म देते हैं। जबकि विरोधियों का मानना है कि यह संशोधन ऐतिहासिक परंपराओं को मिटाने और धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करने जैसा है।
अब जब गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट सरकार की दलीलें सुनेगा, सबकी निगाहें इस बात पर टिकी होंगी कि अदालत किस तरह ऐतिहासिक धार्मिक परंपराओं और आधुनिक कानूनी पंजीकरण की शर्तों के बीच संतुलन बनाती है।