पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने एक अहम निर्णय में कहा है कि यदि नसबंदी (वासेक्टॉमी) ऑपरेशन असफल हो जाए और इसमें डॉक्टर की लापरवाही या चिकित्सा परामर्श की अवहेलना का कोई प्रमाण न हो, तो पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने का कोई आधार नहीं बनता। कोर्ट ने उस आदेश को निरस्त कर दिया जिसमें हरियाणा सरकार को एक दंपत्ति को मुआवजे की राशि देने का निर्देश दिया गया था, क्योंकि नसबंदी के बावजूद उनकी पांचवीं संतान का जन्म हो गया था।
मामला क्या है
राम सिंह और उनकी पत्नी शारदा रानी ने राज्य सरकार और अन्य के विरुद्ध 2 लाख रुपये के हर्जाने की मांग करते हुए अलग-अलग वाद दायर किए थे। उन्होंने दावा किया कि 09.08.1986 को पेहोवा के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में राम सिंह की वासेक्टॉमी कराई गई थी, इसके बावजूद 02.07.1988 को उनकी पांचवीं संतान का जन्म हुआ। दोनों वादों की एक साथ सुनवाई हुई और ट्रायल कोर्ट ने इन्हें 11.09.1997 के साझा फैसले में खारिज कर दिया।
लेकिन अपील पर सुनवाई करते हुए अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, कुरुक्षेत्र ने 15.06.2001 को ट्रायल कोर्ट के निर्णय को पलटते हुए ₹1,00,000 मुआवजा और 6% ब्याज (बच्चे के जन्म की तारीख से अदायगी की तिथि तक) का आदेश दिया, जो प्रतिवादियों द्वारा संयुक्त रूप से चुकाया जाना था। इस फैसले को राज्य सरकार ने वर्तमान द्वितीय अपील के माध्यम से चुनौती दी।
अपीलकर्ता (राज्य) की दलीलें
हरियाणा सरकार ने तर्क दिया कि:
- निचली अपीलीय अदालत ने चिकित्सकीय साक्ष्यों और नसबंदी प्रमाणपत्र (Ex.DY) में उल्लिखित सावधानियों को नजरअंदाज किया, जिसमें स्पष्ट रूप से तीन महीने तक संयम बरतने और वीर्य परीक्षण कराने की सलाह दी गई थी।
- वादीगण यह साबित नहीं कर सके कि उन्होंने डॉक्टर की इन सलाहों का पालन किया।
- डॉक्टर आर.के. गोयल, जिन्होंने हजारों ऐसे ऑपरेशन किए थे, की ओर से कोई लापरवाही सिद्ध नहीं हुई।
- यह ऑपरेशन सरकार की स्वैच्छिक योजना के तहत किया गया था और इसमें विफलता की संभावना को लेकर सहमति भी ली गई थी।
- राज्य ने State of Punjab vs. Shiv Ram & Others और Civil Hospital & Others vs. Manjit Singh & Another जैसे सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए तर्क दिया कि लापरवाही सिद्ध न होने की स्थिति में मुआवजा नहीं दिया जा सकता।
प्रतिवादियों (वादियों) की दलीलें
राम सिंह और शारदा रानी ने तर्क दिया कि:
- नसबंदी की विफलता से उन्हें मानसिक और शारीरिक पीड़ा का सामना करना पड़ा।
- गर्भावस्था ने शारदा रानी की सामाजिक छवि पर सवाल खड़े कर दिए और उनकी चरित्र पर संदेह उत्पन्न हुआ।
- अवांछित संतान ने अनपेक्षित आर्थिक और भावनात्मक बोझ बढ़ा दिया।
हाईकोर्ट की टिप्पणियां और विश्लेषण
न्यायमूर्ति निधि गुप्ता ने कहा:
“रिकॉर्ड से स्पष्ट है कि वादी यह प्रमाणित करने में असफल रहे कि उन्होंने डॉक्टर के निर्देशों का पूरी तरह पालन किया… तीन महीने बाद वीर्य परीक्षण हुआ हो, इसका कोई प्रमाण रिकॉर्ड पर नहीं है।”
उन्होंने आगे कहा कि केवल ऑपरेशन की विफलता अपने आप में लापरवाही सिद्ध नहीं करती:
“आंकड़े बताते हैं कि वासेक्टॉमी की विफलता की संभावना दुर्लभ है, जो 0.3% से 9% तक हो सकती है। वादी इस दुर्लभ श्रेणी में आ गए। इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्रतिवादी संख्या 4 (डॉक्टर) की कोई लापरवाही हुई।”
शारदा रानी पर सामाजिक कलंक की बात पर कोर्ट ने कहा:
“यह तर्क अस्वीकार्य है… यह प्रमाणित हो चुका है कि वासेक्टॉमी के बाद जन्मी बेटी, वादी राम सिंह की संतान है।”
कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि निचली अपीलीय अदालत द्वारा State of Haryana vs. Santra (2000) पर की गई निर्भरता अनुचित थी, क्योंकि उस मामले में केवल एक फैलोपियन ट्यूब की नसबंदी हुई थी, जो स्पष्ट लापरवाही का मामला था — जबकि वर्तमान मामले में ऐसा नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट के Shiv Ram और अन्य मामलों का हवाला देते हुए कोर्ट ने दोहराया:
“प्राकृतिक कारणों से हुई विफलता मुआवजे का आधार नहीं हो सकती… जब दंपत्ति को गर्भधारण की जानकारी हो जाती है और वे गर्भावस्था को जारी रखते हैं, तो यह ‘अवांछित संतान’ नहीं मानी जा सकती।”
निर्णय
हाईकोर्ट ने हरियाणा सरकार की द्वितीय अपील स्वीकार करते हुए 15.06.2001 का निर्णय रद्द कर दिया। निचली अदालत द्वारा वाद खारिज करने का आदेश पुनः बहाल कर दिया गया।