सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी, जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा पति और ससुराल पक्ष के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। न्यायालय ने पाया कि शिकायत में लगाए गए आरोप अस्पष्ट, विरोधाभासी और अपर्याप्त साक्ष्यों पर आधारित हैं, और इस प्रकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत हाईकोर्ट द्वारा की गई कार्रवाई प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने हेतु उचित थी।
पृष्ठभूमि
याचिकाकर्ता ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498ए (क्रूरता), 325 (गंभीर चोट पहुंचाना), और 506 (आपराधिक धमकी), तथा दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3 और 4 के तहत अपराधों का आरोप लगाया गया था। लखनऊ के अपर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर इस शिकायत में पति के परिवार के दस सदस्यों को नामज़द किया गया था, जिनमें माता-पिता, चाचा-चाची और उनके बच्चे शामिल थे।
8 नवंबर 2023 को मजिस्ट्रेट ने केवल पति और उसके माता-पिता को समन जारी किया, जबकि विस्तारित परिवार के अन्य सदस्यों के खिलाफ कार्यवाही में शिकायत और धारा 200 एवं 202 के अंतर्गत दर्ज बयानों में विरोधाभास पाए जाने के कारण समन जारी नहीं किया गया। मजिस्ट्रेट ने गीता मेहरोत्रा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (2012) 10 SCC 741 मामले में दिए गए निर्णय का संदर्भ लिया।

बाद में पति और उसके माता-पिता ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में धारा 482 के अंतर्गत याचिका दायर की, जिसे स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने पूरे मामले को रद्द कर दिया। कोर्ट ने प्रीति गुप्ता बनाम झारखंड राज्य, (2010) 7 SCC 667 मामले का हवाला देते हुए कहा कि विवाह संबंधी विवादों में विस्तारित परिवार के सदस्यों को बिना पर्याप्त आधार के फंसाने की प्रवृत्ति को देखते हुए न्यायालयों को अत्यधिक सतर्क रहना चाहिए।
न्यायालय की कार्यवाही
न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने दोनों पक्षों की दलीलों को सुना।
सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत लंबित पारिवारिक न्यायालय की कार्यवाही के तथ्यों में प्रवेश करने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि उस मामले में अभी अपील विचाराधीन है। न्यायालय ने केवल आपराधिक शिकायत की विश्वसनीयता पर विचार किया।
न्यायालय ने याचिकाकर्ता के बयानों में कई विरोधाभास पाए। यद्यपि उन्होंने 28 सितंबर 2020 को matrimonial home से निकाले जाने का आरोप लगाया, फिर भी उन्होंने 26 अक्टूबर 2020 को पति द्वारा करवाचौथ के लिए ₹50,000 का चेक देने और उपहार खरीदने का उल्लेख किया।
न्यायालय ने कहा, “याचिकाकर्ता ने विरोधाभासी रुख अपनाया है और शिकायत तथा मजिस्ट्रेट के समक्ष दिए गए बयान में असंगतियां हैं, जो हमें यह मानने के लिए प्रेरित करती हैं कि यह कार्यवाही न्यायालय की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग है।”
इसके अतिरिक्त, पीठ ने यह भी कहा कि गंभीर चोट जैसे आरोपों को प्रमाणित करने के लिए कोई चिकित्सीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया गया। याचिकाकर्ता द्वारा पारिवारिक न्यायालय में दायर शपथपत्र में यह भी स्वीकार किया गया कि विवाह के कुछ समय बाद तक संबंध सौहार्दपूर्ण थे।
निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत कार्यवाही रद्द करना उचित था। न्यायालय ने कहा कि आपराधिक कार्यवाही “कानून की प्रक्रिया का स्पष्ट दुरुपयोग” थी और हाईकोर्ट ने न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सही तरीके से अधिकारों का प्रयोग किया।
विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी गई और लंबित सभी आवेदनों का निपटारा कर दिया गया।