बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद बेंच ने एक महत्वपूर्ण फैसले में दहेज उत्पीड़न के मामले में पति और उसके परिजनों के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कर दिया। अदालत ने कहा कि केवल पत्नी से यह कहना कि वह अपने पति के साथ तब तक नहीं रह सकती जब तक वह अपने माता-पिता के घर से पैसे नहीं लाती, बिना किसी अतिरिक्त दबाव या हिंसात्मक कार्रवाई के, भारतीय दंड संहिता (IPC) के तहत मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आता।
यह निर्णय न्यायमूर्ति विभा कंकणवाड़ी और न्यायमूर्ति रोहित डब्ल्यू जोशी की खंडपीठ ने दिया, जिसमें वैवाहिक विवादों में सबूत आधारित आरोपों के महत्व को रेखांकित किया गया।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला उस एफआईआर से संबंधित है जो एक महिला ने अपने पति और उसके परिवार के सदस्यों के खिलाफ दर्ज करवाई थी। महिला ने आरोप लगाया कि उनसे ₹5,00,000 की मांग की गई ताकि उनके पति को स्थायी रोजगार मिल सके। आरोपियों पर IPC की धारा 498-A (क्रूरता), 323 (चोट पहुंचाना), 504 (जानबूझकर अपमान), 506 (आपराधिक धमकी) और 34 (सामान्य आशय) के तहत मामला दर्ज किया गया था।
शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि जून 2022 में शादी के तीन महीने बाद से ही यह उत्पीड़न शुरू हुआ। उसने बताया कि दहेज की मांग पूरी न करने पर उसे पति के साथ रहने से रोका गया और धमकी दी गई कि जब तक पैसे नहीं लाए जाएंगे, उसे घर में प्रवेश नहीं दिया जाएगा।
कानूनी मुद्दों पर विचार
1. धारा 498-A IPC के तहत क्रूरता की परिभाषा
अदालत ने इस पर विचार किया कि क्या आरोप मानसिक या शारीरिक क्रूरता की श्रेणी में आते हैं। अदालत ने कहा कि अस्पष्ट और गैर-विशिष्ट आरोप, जिनके समर्थन में कोई स्पष्ट सबूत नहीं है, क्रूरता नहीं माने जा सकते।
2. दहेज की मांग और सहवास पर प्रतिबंध
अदालत ने यह भी जांचा कि क्या दहेज की मांग पूरी न होने पर पत्नी को पति के साथ रहने से रोकना उत्पीड़न की श्रेणी में आता है। बेंच ने पाया कि ऐसा व्यवहार, यदि शारीरिक या निरंतर मानसिक क्रूरता के साथ नहीं जुड़ा है, तो यह उत्पीड़न के कानूनी मानदंडों को पूरा नहीं करता।
3. जांच एजेंसियों की भूमिका
न्यायालय ने पुलिस की जांच प्रक्रिया में खामियों को लेकर नाराजगी जताई। अदालत ने कहा कि जांच सबूतों पर आधारित होनी चाहिए और किसी भी व्यक्ति को अनावश्यक रूप से मामले में घसीटा नहीं जाना चाहिए।
अदालत की टिप्पणियां
अदालत ने एफआईआर की अस्पष्टता और ठोस विवरणों की कमी पर प्रकाश डाला। अदालत ने कहा:
“सिर्फ यह कहना कि एक महिला को उसके माता-पिता से पैसे लाने के बिना पति के साथ सहवास करने की अनुमति नहीं दी गई, बिना ठोस विवरणों या आगे किसी दबावपूर्ण कार्रवाई के, मानसिक या शारीरिक उत्पीड़न की परिभाषा को पूरा नहीं करता।”
अदालत ने यह भी कहा कि गवाहों के बयान दोहराव वाले और मौलिकता से रहित थे, जिससे सबूत की विश्वसनीयता कमजोर हुई। बेंच ने टिप्पणी की, “गवाहों के बयानों में ‘कॉपी-पेस्ट’ दिखाता है कि जांच अधिकारियों की सोच और संवेदनशीलता में कमी है।”
निर्णय
खंडपीठ ने एफआईआर और सिलोड के प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष लंबित कार्यवाही को रद्द कर दिया।
अदालत ने कहा, “आवेदकों के खिलाफ अनुचित मुकदमे को रोकने के लिए यह मामला दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत अधिकारों का प्रयोग करने के लिए उपयुक्त है।”
आवेदकों की ओर से एडवोकेट पूजा एस. इंगले ने श्री एस.जे. सलुंके के पक्ष में प्रतिनिधित्व किया। राज्य सरकार की ओर से एडवोकेट एन.आर. दयामा और शिकायतकर्ता की ओर से एडवोकेट ए.एल. कानेडे ने पक्ष रखा।