पहली पत्नी से कानूनी रूप से तलाक लिए बिना धोखे से बनाए गए शारीरिक संबंध बलात्कार के दायरे में आते हैं: तेलंगाना हाईकोर्ट

वैवाहिक धोखाधड़ी और यौन सहमति से जुड़े मामलों में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए, तेलंगाना हाईकोर्ट ने कहा है कि यदि किसी पुरुष ने अपनी पहली पत्नी से कानूनी रूप से तलाक नहीं लिया है और फिर किसी महिला के साथ कानूनी विवाह के झूठे बहाने पर शारीरिक संबंध बनाता है, तो यह भारतीय दंड संहिता की धारा 375 और भारतीय न्याय संहिता (BNS) की धारा 63 के तहत बलात्कार की श्रेणी में आता है।

परिवार न्यायालय अपील संख्या 19/2025 को स्वीकार करते हुए, न्यायमूर्ति मौसमी भट्टाचार्य और न्यायमूर्ति बी.आर. मधुसूदन राव की खंडपीठ ने अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच हुए विवाह को शून्य घोषित किया और परिवार न्यायालय द्वारा अपीलकर्ता की याचिका खारिज किए जाने के आदेश को निरस्त कर दिया। हाईकोर्ट ने प्रतिवादी के आचरण और निचली अदालत के “पूर्वग्रह और आपत्तिजनक” तर्कों की कड़ी निंदा की।

मामले की पृष्ठभूमि और तथ्य

अपीलकर्ता और प्रतिवादी का विवाह 8 मार्च 2018 को लक्ष्मी नरसिम्हा स्वामी मंदिर, यदगिरीगुट्टा में हिंदू रीति-रिवाज से हुआ था। बाद में अपीलकर्ता को पता चला कि प्रतिवादी का अपनी पहली पत्नी से कानूनी तलाक नहीं हुआ था। इस पर अपीलकर्ता ने हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धाराओं 11, 5 और 25 के तहत और परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 7 के तहत विवाह को शून्य घोषित करने की याचिका (O.P. No. 539/2021) दायर की और 1 करोड़ रुपये का स्थायी भरण-पोषण भी मांगा।

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परिवार न्यायालय ने याचिका यह कहते हुए खारिज कर दी कि अपीलकर्ता को प्रतिवादी की पूर्व शादी की “संरचनात्मक जानकारी” थी और उन्होंने प्रतिवादी की आर्थिक स्थिति का कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया। हाईकोर्ट ने इस निर्णय से स्पष्ट असहमति जताई।

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परंपरागत तलाक का दावा खारिज

प्रतिवादी ने दावा किया कि उसकी पहली शादी पारंपरिक तलाक से पारिवारिक बड़ों की सहमति से समाप्त हो गई थी। लेकिन न्यायालय ने कहा:

“प्रतिवादी ने परंपरा के आधार पर तलाक का कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया… केवल एक दावा करना ही पर्याप्त नहीं है… कोई मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य नहीं दिया गया।”

खंडपीठ ने कहा कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 29(2) परंपरागत तलाक को मान्यता देती है, लेकिन इसके लिए कड़े प्रमाण आवश्यक होते हैं। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Subramani v. M. Chandralekha [(2005) 9 SCC 407] का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:

“कोई साक्ष्य नहीं दिया गया कि तलाक का दस्तावेज उस समुदाय की परंपरा के अनुसार है।”

पहली पत्नी को पक्षकार न बनाना कोई बाधा नहीं

यह तर्क दिया गया कि प्रतिवादी की पहली पत्नी को पक्षकार नहीं बनाया गया है, लेकिन खंडपीठ ने व्यावहारिक और मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा:

“यह ऐसा मामला नहीं है जहां उसके चरित्र, प्रतिष्ठा या मान-सम्मान पर कोई सवाल उठता हो… प्रतिवादी की पहली पत्नी लंबे समय से कोमा में हैं।”

इसलिए, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने वाले आंध्र प्रदेश नियमों के नियम 8(1) के अपवाद का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा कि पहली पत्नी को पक्षकार न बनाना कार्यवाही को अमान्य नहीं बनाता

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सहमति और बलात्कार पर फैसला

निर्णय के सबसे प्रभावशाली हिस्से में खंडपीठ ने आईपीसी की धारा 375 (चतुर्थ) और बीएनएस की धारा 63(d)(iv) को उद्धृत करते हुए कहा कि अपीलकर्ता की शारीरिक संबंधों के लिए दी गई सहमति झूठे विश्वास पर आधारित थी कि वह कानूनी रूप से विवाहित है, इसलिए यह सहमति वैध नहीं मानी जाएगी

न्यायालय ने कहा:

“चूंकि प्रतिवादी को यह ज्ञात था कि उसकी पत्नी जीवित है… और अपीलकर्ता की सहमति इस विश्वास पर आधारित थी कि वह उसकी कानूनी पत्नी है, इसलिए प्रतिवादी धारा 375 और 376 आईपीसी और वैकल्पिक रूप से धारा 63 और 64 बीएनएस के तहत दंडनीय अपराध का दोषी है।”

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय Bhupinder Singh v. UT of Chandigarh [(2008) 8 SCC 531] का हवाला देते हुए कोर्ट ने कहा:

“कानूनी विवाह के झूठे विश्वास में दी गई सहमति, कानून की नजर में सहमति नहीं मानी जाती।”

परिवार न्यायालय के आदेश की आलोचना

हाईकोर्ट ने निचली अदालत के आदेश की कड़ी आलोचना की:

“विवादित आदेश कई स्तरों पर आलोचना के योग्य है… ट्रायल कोर्ट ने ऐसे निष्कर्ष दिए जो पूर्वग्रह से ग्रसित और आपत्तिजनक हैं।”

कोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने ऐसे मनगढ़ंत और आधारहीन निष्कर्ष निकाले:

  • “याचिकाकर्ता ऐशोआराम की जिंदगी जी रही है और प्रतिवादी से पैसा वसूल रही है।”
  • “वह आंखें मूंद कर विवाह देख रही थी।”

हाईकोर्ट ने कहा कि ये निष्कर्ष रिकॉर्ड के विपरीत हैं, क्योंकि प्रतिवादी ने स्वयं स्वीकार किया था कि उनका विवाह तय किया गया था।

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भरण-पोषण और स्थायी गुजारा भत्ता पर टिप्पणी

हालांकि अपीलकर्ता ने अपील में भरण-पोषण पर जोर नहीं दिया, लेकिन कोर्ट ने इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण कानूनी स्पष्टीकरण दिया। सुप्रीम कोर्ट के 2025 के निर्णय (Sukhdev Singh v. Sukhbir Kaur) का हवाला देते हुए कहा गया:

“1955 अधिनियम की धारा 11 के तहत शून्य घोषित विवाह के बावजूद, संबंधित पक्ष धारा 25 के तहत भरण-पोषण की मांग कर सकता है।”

यह फैसला अवैध विवाहों में फंसी महिलाओं के लिए कानूनी संरक्षण को और मजबूत करता है।

कोर्ट ने कहा:

“प्रतिवादी ने अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते अपीलकर्ता से विवाह किया और धारा 29(2) के अंतर्गत दी गई छूट के अंतर्गत नहीं आता… कथित पारंपरिक तलाक असिद्ध रहा… परिवार न्यायालय अपने कर्तव्य में विफल रहा।”

इन शब्दों के साथ तेलंगाना हाईकोर्ट ने अपील स्वीकार की, विवाह को शून्य घोषित किया और परिवार न्यायालय का दिनांक 19.11.2024 का आदेश रद्द कर दिया

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