केवल संदेह के आधार पर आपराधिक आरोप नहीं लगाए जा सकते: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दहेज मामले में कार्यवाही रद्द की

एक महत्वपूर्ण फैसले में, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498-ए, 506 और 120-बी तथा दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 3/4 के तहत आरोपी आवेदक के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही रद्द कर दी। न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता की अध्यक्षता वाली अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि “केवल संदेह के आधार पर आपराधिक आरोप नहीं लगाए जा सकते,” खासकर क्रूरता और दहेज उत्पीड़न के आरोपों वाले मामलों में।

मामले की पृष्ठभूमि:

मामले में दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 482 के तहत दायर एक आवेदन शामिल था, जिसमें इलाहाबाद के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में लंबित एक आपराधिक मामले की पूरी कार्यवाही को रद्द करने की मांग की गई थी। यह मामला एक व्यक्ति की पत्नी द्वारा दर्ज कराई गई शिकायत से उत्पन्न हुआ, जिसमें आरोप लगाया गया कि आवेदक और अन्य लोग क्रूरता, आपराधिक धमकी और दहेज उत्पीड़न से संबंधित साजिश में शामिल थे।

शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि आवेदक, जो उसके पति का मित्र है, उसके साथ अक्सर संवाद करता था, जिसके कारण वैवाहिक कलह हुई और उसके पति ने तलाक लेने का फैसला किया। इस संबंध के आधार पर, शिकायतकर्ता ने आवेदक पर क्रूरता और उत्पीड़न को बढ़ावा देने का आरोप लगाया।

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मुख्य कानूनी मुद्दे और न्यायालय के निष्कर्ष:

न्यायालय ने इस मामले में कई महत्वपूर्ण कानूनी मुद्दों की जांच की:

1. धारा 498-ए आईपीसी की प्रयोज्यता: प्राथमिक प्रश्न यह था कि क्या आवेदक, जो शिकायतकर्ता के पति का मात्र मित्र है, को धारा 498-ए के तहत “पति का रिश्तेदार” माना जा सकता है, जो पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता से संबंधित है।

2. दहेज निषेध अधिनियम की धारा 3 और 4 की प्रासंगिकता: न्यायालय ने इस बात पर विचार किया कि क्या आवेदक पर इन धाराओं के तहत मुकदमा चलाने का कोई आधार है, क्योंकि इस बात के कोई सबूत नहीं हैं कि उसने दहेज की मांग की थी या इसके लिए उकसाया था।

3. धारा 120-बी आईपीसी (आपराधिक षड्यंत्र) के तहत आरोपों की वैधता: न्यायालय ने मूल्यांकन किया कि क्या साक्ष्य से यह साबित होता है कि आवेदक ने शिकायतकर्ता को परेशान करने या उसके खिलाफ क्रूरता करने के लिए कोई षड्यंत्र रचा था।

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न्यायालय की टिप्पणियां:

न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता ने कार्यवाही को रद्द करते हुए आवेदक के खिलाफ आरोपों का समर्थन करने वाले सबूतों की कमी को रेखांकित किया। उन्होंने कहा:

“यहां आवेदक न तो पति है और न ही पति का रिश्तेदार है, बल्कि वह पति का मित्र है और पति का मित्र किसी भी तरह से पति के रिश्तेदार के दायरे में नहीं आ सकता… इसलिए, इस मामले के तथ्यों से, आवेदक के खिलाफ धारा 498-ए आईपीसी के तहत कोई अपराध नहीं बनता।”

न्यायालय ने पाया कि आवेदक पर दहेज मांगने या उत्पीड़न का कोई आरोप नहीं है। न्यायालय ने आगे जोर दिया:

“आवेदक के खिलाफ इस मामले में आरोपित कोई भी अपराध सिद्ध नहीं हुआ है, तथा आवेदक पर अवैध संबंध के संदेह के कारण विपक्षी पक्ष द्वारा दुर्भावनापूर्ण तरीके से मुकदमा चलाया गया है… केवल संदेह ही आपराधिक आरोपों का आधार नहीं हो सकता।”

यह निष्कर्ष निकालते हुए कि आरोप बिना किसी ठोस सबूत के केवल संदेह पर आधारित थे, हाईकोर्ट ने आवेदक के खिलाफ पूरी आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि मामले में कोई दम नहीं है तथा यह आवेदक के शिकायतकर्ता के पति के साथ संबंधों की गलतफहमी पर आधारित है, जो उनके कॉलेज के दिनों की दोस्ती तक सीमित था।

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न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा:

“धारा 498-ए, 506, 120-बी आईपीसी तथा दहेज निषेध अधिनियम की 3/4 के तहत कथित अपराधों से उत्पन्न आपराधिक मामले की पूरी कार्यवाही आवेदक के कारण रद्द की जाती है।”

आवेदक का प्रतिनिधित्व विद्वान वकील ने किया, जिन्होंने तर्क दिया कि उसके खिलाफ कोई अपराध नहीं बनता, जबकि शिकायतकर्ता का प्रतिनिधित्व उसके वकील ने किया, जिन्होंने कहा कि आवेदक के कार्यों के कारण वैवाहिक कलह हुई। राज्य का प्रतिनिधित्व अतिरिक्त सरकारी वकील ने किया।

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