बॉम्बे हाईकोर्ट की औरंगाबाद पीठ ने, जिसमें न्यायमूर्ति विभा कंकणवाड़ी और न्यायमूर्ति संजय ए. देशमुख शामिल थे, एक व्यक्ति के खिलाफ बलात्कार और हमले की कार्यवाही रद्द करने से इनकार कर दिया है। उस व्यक्ति पर आरोप है कि उसने एक महिला को सरोगेसी जैसे एक समझौते की आड़ में उसकी सहमति के बिना लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के लिए मजबूर किया। अदालत ने कहा कि ऐसा कोई भी समझौता, जिसमें महिला को गर्भधारण कर बच्चे को आरोपी को पैसे के बदले सौंपना हो, सार्वजनिक नीति के विरुद्ध है और सहमति का वैध आधार नहीं हो सकता।
पृष्ठभूमि
यह याचिका अमित राम जेंडे द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत दायर की गई थी, जिसमें मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, उस्मानाबाद के समक्ष लंबित चार्जशीट संख्या 87/2022 को रद्द करने की मांग की गई थी। यह चार्जशीट आनंदनगर पुलिस स्टेशन, उस्मानाबाद में दर्ज प्राथमिकी संख्या 185/2022 पर आधारित है, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 376(2)(n), 307, 324, 323, 504, 506 तथा धारा 34 के तहत आरोप लगाए गए हैं।
एफआईआर के अनुसार, शिकायतकर्ता (प्रतिवादी संख्या 2), जो याचिकाकर्ता के घर में घरेलू कामकाज करती थीं, ने आरोप लगाया कि जनवरी 2022 से जून 2022 तक उनके साथ बार-बार बलात्कार और शारीरिक हमला किया गया। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें घर से बाहर जाने नहीं दिया जाता था, और जब उन्होंने नौकरी छोड़ने और पारिश्रमिक मांगने की कोशिश की तो उन पर हमला किया गया और उनका गला दबाया गया। मेडिकल रिकॉर्ड में उनके शरीर पर कई चोटों की पुष्टि हुई।

याचिकाकर्ता के तर्क
याचिकाकर्ता के वकील ने निम्नलिखित दलीलें दीं:
- एफआईआर गलतफहमी और दुर्भावना के कारण दर्ज की गई।
- शिकायतकर्ता ने स्वेच्छा से एक वर्ष की लिव-इन रिलेशनशिप के लिए समझौता किया था।
- इस दौरान सहमति से यौन संबंध बनाए गए, इसलिए यह बलात्कार नहीं हो सकता।
- जमानत की सुनवाई के दौरान शिकायतकर्ता द्वारा दाखिल हलफनामे में भी रिश्ते को सहमति से बताया गया है।
- उन्होंने डॉ. ध्रुवराम मुरलीधर सोनार बनाम महाराष्ट्र राज्य [AIR 2019 SC 327] तथा अजीत सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य [2024 ALL SCR (Cri.) 325] पर भरोसा जताते हुए कहा कि सहमति से बने रिश्ते बलात्कार की श्रेणी में नहीं आते।
अभियोजन पक्ष का उत्तर
राज्य और शिकायतकर्ता की ओर से नियुक्त विधिक सहायता अधिवक्ता ने याचिका का विरोध करते हुए कहा:
- शिकायतकर्ता एक घरेलू सहायिका के रूप में कार्यरत थीं और उनके साथ बार-बार बलात्कार और शारीरिक शोषण किया गया।
- उन्हें घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी और जब उन्होंने इस व्यवस्था से बाहर निकलने की कोशिश की तो उन पर हमला हुआ।
- तथाकथित समझौता वास्तव में वैध लिव-इन रिलेशनशिप नहीं था, बल्कि पैसे के बदले की गई सरोगेसी जैसी एक शोषणकारी व्यवस्था थी, जिसमें शिकायतकर्ता, उनकी मां और याचिकाकर्ता की पत्नी शामिल थीं।
- मेडिकल रिकॉर्ड में शारीरिक हमले की पुष्टि हुई है और शिकायतकर्ता की मां और उनकी मित्र ने भी आरोपों का समर्थन किया है।
अदालत की टिप्पणियां
अदालत ने पाया कि:
- जिस दस्तावेज को लिव-इन समझौता कहा गया, वह वास्तव में एक प्रकार का सरोगेसी अनुबंध था, जो भारत में वैध नहीं है और सार्वजनिक नीति के खिलाफ है।
- अदालत ने टिप्पणी की, “यह विश्वास करना कठिन है कि याचिकाकर्ता की पत्नी द्वारा ऐसा समझौता किया जा सकता है, जिसमें वह अपने पति को इस तरह से किसी अन्य महिला के साथ बाँट रही हो। कोई भी विवेकशील विवाहित महिला ऐसा नहीं करेगी।”
- शिकायतकर्ता एक अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर महिला थीं, जिन्हें आर्थिक स्थिति के कारण इस समझौते में फंसाया गया प्रतीत होता है।
- इस प्रकार की परिस्थितियों में दी गई “सहमति” भारतीय दंड संहिता की धारा 90 के तहत वैध नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह डर या भ्रांति में दी गई सहमति मानी जाएगी।
- जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान दाखिल हलफनामा और अन्य दस्तावेज जो शिकायतकर्ता और उनकी मां से कथित रूप से लिए गए थे, वे दबाव में हस्ताक्षरित प्रतीत होते हैं और इनकी जांच ट्रायल में आवश्यक है।
- सुप्रीम कोर्ट के निर्णय डॉ. ध्रुवराम मुरलीधर सोनार के संदर्भ में कोर्ट ने दोहराया कि सहमति वास्तविक और स्वैच्छिक होनी चाहिए। “धारा 375 के तहत सहमति का अर्थ है स्वैच्छिक भागीदारी, जो बुद्धिमत्ता और नैतिक समझ के आधार पर दी गई हो, और जिसमें प्रतिरोध और सहमति के बीच वास्तविक विकल्प का प्रयोग किया गया हो।”
निर्णय
कोर्ट ने पाया कि रिकॉर्ड पर प्रथम दृष्टया पर्याप्त सामग्री मौजूद है और तथाकथित समझौता कोई वैध बचाव नहीं दे सकता। अंततः कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला:
“दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत हस्तक्षेप का कोई मामला नहीं बनता।”
इस प्रकार याचिका खारिज कर दी गई।