गवाहों के बयानों में मामूली ‘बढ़ा-चढ़ाकर’ कही गई बातें सजा रद्द करने का आधार नहीं; कोर्ट को ‘भूसे से अनाज’ अलग करना होगा: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने 2007 में एक स्कूल शिक्षक की नृशंस हत्या के मामले में पांच व्यक्तियों की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा है। शीर्ष अदालत ने मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले को सही ठहराया है, जिसमें हाईकोर्ट ने निचली अदालत (ट्रायल कोर्ट) द्वारा आरोपियों को बरी किए जाने के आदेश को पलट दिया था।

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने स्पष्ट किया कि गवाहों के बयानों का मूल्यांकन करते समय अदालतों को “सूक्ष्म दृष्टिकोण” (nuanced approach) अपनाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष की कहानी में मामूली विसंगतियां या गवाहों द्वारा “बढ़ा-चढ़ाकर” (embroidery) कही गई बातें विश्वसनीय सबूतों को खारिज करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं, यदि मामले की मुख्य सच्चाई (ring of truth) बरकरार रहती है।

सुप्रीम कोर्ट के समक्ष मुख्य कानूनी सवाल यह था कि क्या हाईकोर्ट द्वारा सत्र न्यायालय (Sessions Court) के निष्कर्षों को पलटना उचित था? सत्र न्यायालय ने गवाहों के बयानों और मेडिकल सबूतों में कथित विरोधाभासों के आधार पर आरोपियों को बरी कर दिया था।

शीर्ष अदालत ने इसका सकारात्मक उत्तर देते हुए मुरुगेसन उर्फ षणमुगसुंदरम (A-1), पचई पेरुमल उर्फ पचिकुट्टी (A-2), पलवेसराज उर्फ पलवेसमुथु (A-3), कुलसेकरपंडियन (A-4), और बिलेडी गणेशन उर्फ सेलवागणेशन (A-10) द्वारा दायर अपीलों को खारिज कर दिया। कोर्ट ने भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 302, 34, 148 और 341 के तहत उनकी सजा की पुष्टि की।

मामले की पृष्ठभूमि

अभियोजन पक्ष के अनुसार, 12 जुलाई 2007 को पीड़ित शिक्षक जब स्कूल से मोटरसाइकिल पर घर लौट रहे थे, तब आरोपियों ने उन्हें रोक लिया। भूमि विवाद से जुड़ी पुरानी रंजिश के चलते आरोपियों ने कथित तौर पर एक “निंजा चेन” का उपयोग करके उन्हें रोका और चाकुओं (sickles) से उन पर अंधाधुंध हमला किया, जिससे मौके पर ही उनकी मौत हो गई।

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ट्रायल कोर्ट ने 1 सितंबर 2009 के अपने फैसले में अभियोजन के संस्करण में विसंगतियों का हवाला देते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया था। हालांकि, पीड़ित की विधवा (PW-8) की अपील पर मद्रास हाईकोर्ट ने 7 दिसंबर 2021 को पांच आरोपियों (A-1 से A-4 और A-10) को बरी करने के फैसले को पलट दिया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

पक्षों की दलीलें

अपीलकर्ताओं का पक्ष: आरोपियों के वकीलों ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के “सुविचारित” बरी करने के फैसले को पलटकर गलती की है। उनकी मुख्य दलीलें थीं:

  • महत्वपूर्ण विरोधाभास: बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि अभियोजन का दावा है कि शव को लुढ़का कर केले के खेत में ले जाया गया था, लेकिन मेडिकल सबूतों में शरीर पर खरोंच के ऐसे कोई निशान नहीं मिले जो यह दर्शाते हों कि शव को कांटों वाली बाड़ से खींचकर ले जाया गया था।
  • हितबद्ध गवाह (Interested Witnesses): यह कहा गया कि मुख्य चश्मदीद गवाह PW-1 और PW-2 (पीड़ित के साले और भाई) हितबद्ध पक्ष थे और उनके बयानों में परस्पर विरोधाभास था।
  • FIR में देरी: बचाव पक्ष ने न्यायिक मजिस्ट्रेट तक FIR पहुंचने में लगभग 15 घंटे की देरी को उजागर किया, जिससे मामले में हेरफेर का सुझाव मिलता है।
  • A-10 की संलिप्तता: आरोपी A-10 की ओर से तर्क दिया गया कि उसका नाम शुरुआती FIR में नहीं था और उसे बाद में सोच-समझकर फंसाया गया।

प्रतिवादी का पक्ष: पीड़ित की विधवा की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सुश्री एन.एस. नप्पिनई ने तर्क दिया कि हाईकोर्ट ने सबूतों का सही मूल्यांकन किया है। उन्होंने कहा:

  • पुष्टि (Corroboration): PW-1 और PW-2 के चश्मदीद बयानों की पुष्टि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट (Ext. P-25) से पूरी तरह होती है, जिसमें 11 अलग-अलग चोटें दर्ज की गई थीं।
  • मकसद: भूमि विवादों से संबंधित पिछली FIR स्पष्ट मकसद (motive) स्थापित करती हैं।
  • तत्काल शिकायत: शिकायत तुरंत दर्ज कराई गई थी, और FIR भेजने में देरी मजिस्ट्रेट की अनुपलब्धता के कारण थी, जिसे हेड कांस्टेबल (PW-26) ने स्पष्ट किया था।
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कोर्ट का विश्लेषण

सुप्रीम कोर्ट ने चश्मदीद गवाहों के सबूतों की सराहना करने वाले सिद्धांतों का विस्तृत विश्लेषण किया, विशेष रूप से तब जब गवाह पक्षद्रोही हो जाते हैं या बातों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।

गवाहों की गवाही पर: पीठ ने ‘उत्तर प्रदेश राज्य बनाम अनिल सिंह (1988)’ के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि भारतीय संदर्भ में एक “सूक्ष्म दृष्टिकोण” आवश्यक है। कोर्ट ने दोहराया:

“यह अदालत का कर्तव्य है कि वह सबूतों से सच्चाई के अंशों को बाहर निकाले, जब तक कि विसंगतियां या झूठ इतना स्पष्ट न हो कि गवाहों पर से विश्वास पूरी तरह उठ जाए।”

अदालत ने आगे कहा:

“गवाह घटनाओं और चीजों को भूलने के लिए प्रवृत्त होते हैं; वे अपनी कहानी को बदलने या उसे बढ़ा-चढ़ाकर (exaggerate) बताने की संभावना रखते हैं… जैसा कि इस अदालत ने अनिल सिंह मामले में कहा था, गवाह अभियोजन पक्ष की कहानी में ‘कढ़ाई’ (embroidery) जोड़ते हैं, शायद इस डर से कि उन पर विश्वास नहीं किया जाएगा।”

मामले के गुण-दोष पर:

  1. स्थिरता: कोर्ट ने पाया कि PW-1 और PW-2 के बयान इस बात पर सुसंगत थे कि A-3 ने निंजा चेन का उपयोग करके पीड़ित को रोका और फिर घातक हमला किया।
  2. मेडिकल पुष्टि: कोर्ट ने नोट किया कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में दर्ज 11 चोटें चश्मदीद गवाहों द्वारा बताए गए कृत्यों से “लगभग पूरी तरह मेल खाती हैं”। विशेष रूप से, पीड़ित की कलाई का कटना और A-10 द्वारा कंधों पर चोट पहुंचाने की बात मेडिकल राय से पुष्ट हुई।
  3. ‘बढ़ा-चढ़ाकर’ बताई गई बातें: शव को खेत में लुढ़काने के बचाव पक्ष के तर्क पर, कोर्ट ने स्वीकार किया कि चश्मदीद गवाहों के बयान और विधवा (PW-8) द्वारा देखे गए भौतिक साक्ष्य (शव सड़क पर था) में अंतर था। हालांकि, कोर्ट ने इस विसंगति को “कढ़ाई” (embroidery) करार दिया, जो अभियोजन के पूरे मामले को खारिज करने का आधार नहीं बन सकती।
  4. A-10 की भूमिका: कोर्ट ने A-10 का नाम शुरुआती FIR में न होने की दलील को खारिज कर दिया, यह नोट करते हुए कि उसका नाम अगले ही दिन लिया गया था और उसे जिम्मेदार ठहराई गई चोटें मेडिकल निष्कर्षों के अनुरूप थीं।
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फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि बरी करने के आदेश को पलटने में हाईकोर्ट ने कोई गलती नहीं की थी। पीठ ने कहा:

“इस तर्क में दम है… कि समान आशय के साथ पूर्व नियोजित हत्या को अभियोजन पक्ष ने रिकॉर्ड पर मौजूद सबूतों के आधार पर अकाट्य रूप से स्थापित किया है और हाईकोर्ट के निष्कर्ष… अपीलकर्ताओं के दोष की ओर अचूक इशारा करते हैं।”

नतीजतन, सभी अपीलें खारिज कर दी गईं।

केस डिटेल्स

केस का शीर्षक: पचई पेरुमल उर्फ पचिकुट्टी और अन्य बनाम राज्य द्वारा पुलिस निरीक्षक और अन्य (एवं अन्य जुड़ी हुई अपीलें)

केस नंबर: क्रिमिनल अपील नंबर 2030 ऑफ 2022

कोरम: जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह 

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