मृत्युदंड मामलों में पीड़ित व समाज केंद्रित दिशानिर्देशों पर केंद्र की याचिका पर 8 अक्टूबर को सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट

 सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को 8 अक्टूबर की तारीख तय की है ताकि केंद्र सरकार की उस याचिका पर सुनवाई की जा सके जिसमें जघन्य अपराधों में मृत्युदंड दिए जाने के मामलों में “पीड़ित और समाज केंद्रित” दिशानिर्देश बनाए जाने की मांग की गई है।

यह मामला न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति संदीप मेहता और न्यायमूर्ति एन.वी. अंजनिया की पीठ के समक्ष आया। केंद्र ने जनवरी 2020 में यह आवेदन दायर किया था, जिसमें कहा गया था कि 2014 में शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ मामले में जारी किए गए दिशानिर्देश केवल “आरोपी और दोषी केंद्रित” हैं, जबकि पीड़ित और समाज के हितों की अनदेखी की गई है।

जनवरी 2020 में शीर्ष अदालत ने केंद्र के आवेदन पर विचार करने के लिए सहमति दी थी और 2014 के शत्रुघ्न चौहान मामले में शामिल हितधारकों से जवाब मांगे थे। उस समय अदालत ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि उस मामले में दोषसिद्धि और सजा से छेड़छाड़ नहीं होगी।

केंद्र ने दलील दी थी कि जघन्य अपराधों में दोषी ठहराए गए कैदी अक्सर कानूनी और संवैधानिक उपचारों का बार-बार इस्तेमाल करते हैं और इससे फांसी में अनावश्यक विलंब होता है, जिससे पीड़ित परिवारों की पीड़ा और मानसिक आघात बढ़ जाता है।

केंद्र ने कहा कि 2014 के दिशानिर्देश पूरी तरह आरोपी-केंद्रित हैं और इनमें “पीड़ितों व उनके परिवारों के अपूरणीय मानसिक आघात, वेदना और पीड़ा, राष्ट्र की सामूहिक चेतना तथा मृत्युदंड के निवारक प्रभाव” को शामिल नहीं किया गया है।

याचिका में 2012 निर्भया सामूहिक बलात्कार-हत्या मामले का हवाला दिया गया, जिसमें चार दोषियों की फांसी बार-बार समीक्षा, सुधारात्मक और दया याचिकाओं के चलते कई महीनों तक टलती रही। केंद्र ने मांग की है कि काला वारंट जारी होने के बाद दोषियों को सात दिनों के भीतर फांसी दी जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शत्रुघ्न चौहान मामला पहले ही अंतिम रूप से तय हो चुका है क्योंकि समीक्षा और सुधारात्मक याचिकाएं खारिज हो चुकी हैं। हालांकि, अदालत इस बात पर विचार करने को तैयार है कि क्या मौजूदा दिशानिर्देशों में संशोधन कर उन्हें पीड़ित और समाज केंद्रित बनाया जाए, बगैर आरोपियों के अधिकारों को कमजोर किए।

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अब 8 अक्टूबर को होने वाली सुनवाई में यह महत्वपूर्ण प्रश्न तय होगा कि क्या मृत्युदंड संबंधी दिशानिर्देशों में संतुलन स्थापित कर पीड़ितों और समाज के अधिकारों को और सशक्त बनाया जा सकता है।

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