आपराधिक मामलों में अभियोजन की मंजूरी की वैधता का परीक्षण ट्रायल में होगा, केवल देरी या त्रुटियों के आधार पर धारा 482 के तहत रद्द नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट


सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को खारिज कर दिया है, जिसमें जी. ईश्वरन के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 (Prevention of Corruption Act, 1988) के तहत चल रही आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया गया था। जी. ईश्वरन नागरकोइल लोक योजना प्राधिकरण में सहायक निदेशक के पद पर कार्यरत थे और उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति रखने का आरोप था।

शीर्ष अदालत ने “State Rep. by the Deputy Superintendent of Police, Vigilance and Anti-Corruption, Chennai City-I Department बनाम G. Easwaran (Criminal Appeal No. 1405/2019)” मामले में निचली अदालत में चल रहे ट्रायल (C.C. No. 30/2013) को पुनर्स्थापित करते हुए यह स्पष्ट किया कि अभियोजन की मंजूरी की वैधता का मूल्यांकन ट्रायल के दौरान किया जाना चाहिए, न कि केवल प्रक्रिया में देरी या त्रुटियों के आधार पर भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अंतर्गत पहले ही रद्द कर दिया जाए।

यह निर्णय न्यायमूर्ति पामिडिघंटम श्री नरसिम्हा और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने दिया, जिसमें पूर्व-ट्रायल चरण में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं को रेखांकित किया गया।

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मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला चेन्नई सतर्कता और भ्रष्टाचार निरोधक विभाग द्वारा जी. ईश्वरन के खिलाफ जांच से उत्पन्न हुआ था। आरोप था कि जनवरी 2001 से अगस्त 2008 के बीच उन्होंने अपनी ज्ञात आय से अधिक संपत्ति अर्जित की। जांच में उनकी संपत्ति की कुल राशि ₹26,88,057 आंकी गई, जिसके आधार पर 27 जुलाई 2009 को धारा 13(2) सहपठित धारा 13(1)(e), पीसी अधिनियम के तहत FIR (संख्या: 11/AC/2009/CC-III) दर्ज की गई। राज्य सरकार ने 8 जुलाई 2013 को अभियोजन की मंजूरी दी और 23 सितंबर 2013 को आरोपपत्र दायर किया गया।

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ईश्वरन ने लगातार कानूनी रास्तों से मामले को चुनौती दी। उनकी धारा 239 Cr.P.C. के तहत डिस्चार्ज याचिका को 27 जनवरी 2016 को विशेष अदालत ने खारिज कर दिया, जिसने संपत्ति के मूल्यांकन में संशोधन कर प्रारंभिक दृष्टि से मामला बनता पाया। ईश्वरन द्वारा दी गई पत्नी की संपत्ति आय, बेटी को दादाजी द्वारा दिया गया ₹7,80,000 का उपहार और बेटे की आय को अदालत ने उस चरण में अस्वीकार कर दिया।

21 अप्रैल 2017 को मद्रास हाईकोर्ट ने भी इस निर्णय को बरकरार रखा। इसके बाद ईश्वरन ने Cr.P.C. की धारा 482 के तहत याचिका दायर की, जिसे हाईकोर्ट ने मंजूर करते हुए कार्यवाही रद्द कर दी, मुख्य रूप से मंजूरी की वैधता पर सवाल उठाते हुए। इसके विरुद्ध राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

मुख्य कानूनी मुद्दे

1. अभियोजन की मंजूरी की वैधता और उसके परीक्षण का समय:
मद्रास हाईकोर्ट ने 8 जुलाई 2013 की मंजूरी को इसलिए अवैध माना क्योंकि सरकारी फाइल में दर्शाया गया था कि मंजूरी के लिए अनुरोध 20 दिसंबर 2013 को प्राप्त हुआ था, जो मंजूरी की तिथि से बाद की थी। राज्य सरकार ने तर्क दिया कि यह टंकण त्रुटि थी और सही तिथि 20 फरवरी 2013 थी। उनका कहना था कि ऐसे विवाद ट्रायल के दौरान सुलझाए जाने चाहिए।

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2. Cr.P.C. की धारा 482 के तहत हाईकोर्ट की सीमाएं:
सुप्रीम कोर्ट ने विचार किया कि क्या हाईकोर्ट ने पहले डिस्चार्ज और पुनरीक्षण याचिका खारिज होने के बावजूद, बिना किसी नई तथ्यात्मक परिस्थिति के, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्यवाही रद्द की।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और टिप्पणियां

सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की अपील को स्वीकार करते हुए ट्रायल को बहाल किया और हाईकोर्ट के दृष्टिकोण की आलोचना की। मुख्य टिप्पणियां इस प्रकार हैं:

1. अभियोजन की मंजूरी की वैधता पर:

न्यायालय ने कहा कि मंजूरी की वैधता—चाहे वह देरी, प्रक्रिया में त्रुटि या सोच-विचार की कमी के आधार पर हो—ट्रायल के दौरान तय की जाएगी। हाईकोर्ट द्वारा मंजूरी को “antidated” (तारीख से पहले की गई) बताते हुए कार्यवाही रद्द करना गलत था। कोर्ट ने टंकण त्रुटि (20 दिसंबर की जगह 20 फरवरी) को स्वीकार किया और कहा कि इस तरह की बातों की पुष्टि ट्रायल के साक्ष्यों से होती है, न कि अनुमान के आधार पर।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने लिखा:

“इस बात में कोई संदेह नहीं कि हाईकोर्ट ने अभियोजन को केवल इस आधार पर रद्द करके गलती की कि अभियोजन की मंजूरी अवैध है… मंजूरी की वैधता एक ऐसा प्रश्न है, जिसे ट्रायल के दौरान ही परखा जाना चाहिए।”

संदर्भ: Dinesh Kumar बनाम Chairman, Airport Authority of India (2012)

“मंजूरी की वैधता से जुड़े सभी तर्क—जैसे मस्तिष्क का अनुप्रयोग न होना—उन्हीं श्रेणियों में आते हैं जिन पर ट्रायल के दौरान चुनौती दी जा सकती है।”

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल मंजूरी में देरी होना आपराधिक मुकदमे को रद्द करने का आधार नहीं बन सकता।

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2. धारा 482 Cr.P.C. की सीमा पर:

कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया और ट्रायल की संभावनाओं पर विचार करते हुए, पूर्व में तय मामलों को पुनः खोल दिया। अदालत ने चेताया कि धारा 482 का उपयोग सीमित और सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए, न कि ट्रायल की प्रक्रिया को दरकिनार करने या दोहराने के लिए।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने कहा:

“यह स्पष्ट है कि हाईकोर्ट ने धारा 482 Cr.P.C. की सीमित परिधि को न समझते हुए ट्रायल के संभावित परिणाम तक पहुँचने की जल्दबाज़ी की। उसने यह विचार करने के बजाय कि ‘क्या आरोपी के विरुद्ध कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है,’ यह देखा कि ‘क्या इससे दोषसिद्धि संभव है।’”

मामले का विवरण:

  • मामला संख्या: Criminal Appeal No. 1405/2019
  • पक्षकार: राज्य (प्रतिनिधि – उप पुलिस अधीक्षक, सतर्कता एवं भ्रष्टाचार निरोधक, चेन्नई सिटी-I विभाग) बनाम जी. ईश्वरन
  • पीठ: न्यायमूर्ति पामिडिघंटम श्री नरसिम्हा एवं न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा

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