सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में स्पष्ट किया है कि महाराष्ट्र की स्थानीय प्राधिकरणों द्वारा साइनबोर्ड पर मराठी के साथ उर्दू भाषा का प्रयोग करना विधिसम्मत है। यह फैसला न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने वरषाताई संजय बगाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य मामले में सुनाया। अदालत ने कहा कि महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 उर्दू के उपयोग पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाता, और उर्दू तथा मराठी दोनों संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाएँ हैं जिन्हें समान संवैधानिक मान्यता प्राप्त है।
पृष्ठभूमि
अपीलकर्ता वरषाताई संजय बगाडे, जो पहले पातूर नगर परिषद, जिला अकोला की सदस्य थीं, ने परिषद भवन के साइनबोर्ड पर उर्दू के प्रयोग पर आपत्ति जताई थी। साइनबोर्ड पर मराठी में नगर परिषद का नाम लिखा गया था और उसके नीचे उर्दू में भी वही नाम प्रदर्शित किया गया था। नगर परिषद ने दिनांक 14.02.2020 को पारित एक प्रस्ताव द्वारा उनकी आपत्ति अस्वीकार कर दी, यह कहते हुए कि 1956 से उर्दू का प्रयोग जारी है और स्थानीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा उर्दू भाषी है।
इसके बाद अपीलकर्ता ने महाराष्ट्र नगरपालिका, नगर पंचायत और औद्योगिक नगर अधिनियम, 1965 की धारा 308 के तहत आवेदन दायर किया। जिलाधिकारी ने उनके पक्ष में आदेश पारित करते हुए केवल मराठी भाषा के उपयोग का निर्देश दिया। हालांकि, यह आदेश मंडलायुक्त द्वारा पलट दिया गया, जिसके विरुद्ध अपीलकर्ता ने बॉम्बे हाई कोर्ट, नागपुर खंडपीठ में याचिका दायर की, जिसे खंडपीठ ने खारिज कर दिया।

सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही
अपीलकर्ता ने SLP (C) डायरी संख्या 24812/2024 के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। उनका तर्क था कि 2022 अधिनियम के लागू होने के बाद स्थानीय निकायों को केवल मराठी भाषा का ही प्रयोग करना अनिवार्य है। इस बीच, उक्त अधिनियम लागू हो गया, जिसमें मराठी को स्थानीय प्राधिकरणों की राजभाषा घोषित किया गया।
सुप्रीम कोर्ट ने तथ्यों और अधिनियम की विस्तृत व्याख्या करते हुए कहा कि भले ही मराठी को राजभाषा के रूप में अनिवार्य किया गया हो, लेकिन किसी अन्य भाषा के अतिरिक्त उपयोग पर कोई रोक नहीं है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भाषा संवाद का माध्यम है, न कि विभाजन का कारण।
सुप्रीम कोर्ट की मुख्य टिप्पणियाँ
न्यायालय ने संविधान और संस्कृति से जुड़े कई अहम पहलुओं पर प्रकाश डाला:
“भाषा धर्म नहीं है। भाषा धर्म का प्रतिनिधित्व भी नहीं करती। भाषा किसी समुदाय, क्षेत्र या लोगों की होती है; धर्म की नहीं।”
अदालत ने उर्दू की सांस्कृतिक और भाषाई विरासत की सराहना करते हुए यह भी कहा:
“2001 की जनगणना के अनुसार, उर्दू भारत की छठी सबसे अधिक बोली जाने वाली अनुसूचित भाषा थी… यह भारत के लगभग सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कम से कम किसी हिस्से द्वारा बोली जाती है, संभवतः पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर।”
न्यायालय ने हिंदी और उर्दू के ऐतिहासिक संबंध, संविधान सभा की बहसों, जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी की विचारधारा, तथा ज्ञानचंद जैन, रामविलास शर्मा और अमृत राय जैसे भाषाविदों के कार्यों का भी उल्लेख किया। अदालत ने कहा कि भारत की भाषाई विविधता का सम्मान और उत्सव होना चाहिए, विरोध नहीं।
निर्णय
अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा कि उर्दू भाषा का साइनबोर्ड पर प्रयोग महाराष्ट्र स्थानीय प्राधिकरण (राजभाषा) अधिनियम, 2022 का उल्लंघन नहीं है। उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपील को खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा:
“2022 अधिनियम या किसी भी अन्य कानून में उर्दू के प्रयोग पर कोई निषेध नहीं है। अपीलकर्ता का संपूर्ण तर्क क़ानून की गलत व्याख्या पर आधारित है।”
निर्णय संदर्भ:
वरषाताई संजय बगाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य, सिविल अपील 2025 (SLP (C) डायरी संख्या 24812/2024 से उत्पन्न), निर्णय दिनांक 15 अप्रैल 2025, पीठ: न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया एवं न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन द्वारा