सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि किसी अनुशंसा प्राप्त उम्मीदवार को राज्यपाल द्वारा मंजूरी नहीं दी जाती है और उसके कारण कोई पद रिक्त रह जाता है, तो उस पद को उसी मेरिट सूची के अगले पात्र उम्मीदवार से भरा जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा नियमावली, 1975 के अंतर्गत ऐसे रिक्त पद को “अनपेक्षित रिक्ति” मानकर अगले भर्ती चक्र के लिए आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।
यह निर्णय न्यायमूर्ति अहसनुद्दीन अमानुल्लाह और न्यायमूर्ति एस. वी. एन. भट्टी की खंडपीठ ने तोष कुमार शर्मा बनाम इलाहाबाद हाईकोर्ट मामले में सुनाया। शीर्ष अदालत ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए अपीलकर्ता को अपर जिला एवं सत्र जज के पद पर नियुक्त करने का निर्देश दिया, जिसमें उसकी वरिष्ठता 2016 की चयन प्रक्रिया से आंकी जाएगी, हालांकि कोई वेतन या लाभ पूर्व अवधि के लिए देय नहीं होगा।
मामला पृष्ठभूमि
यह विवाद ‘उत्तर प्रदेश उच्चतर न्यायिक सेवा-2016’ की सीधी भर्ती से संबंधित है, जिसमें अनारक्षित श्रेणी के लिए 37 पदों के विज्ञापन जारी हुए थे। अपीलकर्ता तोष कुमार शर्मा इस चयन प्रक्रिया में शामिल हुए और अंतिम मेरिट सूची (1 अक्टूबर 2020 को प्रकाशित) में 38वें स्थान पर रहे।

हाईकोर्ट ने 37 उम्मीदवारों की अनुशंसा राज्यपाल को की, परंतु राज्यपाल ने केवल 36 उम्मीदवारों की नियुक्ति को स्वीकृति दी, जिससे एक पद रिक्त रह गया। अपीलकर्ता, जो मेरिट में अगला उम्मीदवार था, ने इस रिक्त पद पर अपनी नियुक्ति की मांग की। हालांकि, हाईकोर्ट की चयन एवं नियुक्ति समिति ने इसे अगली भर्ती में शामिल करने का निर्णय लिया, जिसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सही ठहराया। इसके विरुद्ध अपील सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई।
पक्षकारों की दलीलें
अपीलकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री अजीत कुमार सिन्हा ने दलील दी कि सभी 37 पदों को उसी चयन प्रक्रिया से भरा जाना था। अनुशंसित उम्मीदवार को मंजूरी नहीं मिलना एक आकस्मिक रिक्ति नहीं है, क्योंकि वह नियुक्ति के बाद नहीं हटा था, बल्कि नियुक्ति से पहले ही अस्वीकृत किया गया। ऐसे में मेरिट सूची में अगला पात्र उम्मीदवार — अर्थात अपीलकर्ता — नियुक्ति का हकदार है।
इसके अतिरिक्त, उन्होंने यह भी तर्क दिया कि नियम 8(2) इस स्थिति में लागू नहीं होता, क्योंकि उस नियम की उपयोगिता तब है जब चयनित उम्मीदवारों की संख्या पदों से कम हो, जबकि यहां 37 से अधिक योग्य उम्मीदवार मेरिट सूची में थे।
वहीं, उत्तरदायी हाईकोर्ट की ओर से अधिवक्ता सुश्री प्रीतिका द्विवेदी ने दलील दी कि चयन समिति ने 19 जून 2020 की बैठक में स्पष्ट किया था कि उक्त पद को अगले भर्ती चक्र में “अनपेक्षित रिक्ति” माना जाएगा, और साथ ही पदोन्नति द्वारा उस पद को भरने का प्रस्ताव भी पारित किया गया था, जिससे सुप्रीम कोर्ट के मलिक मज़हर सुल्तान निर्णय का अनुपालन हो सके।
सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 233, 234 और 235 के अंतर्गत न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए मुख्य प्रश्न पर ध्यान केंद्रित किया — कि क्या नियम 8(2) इस स्थिति पर लागू होता है।
कोर्ट ने कहा, “यदि हम हस्तक्षेप नहीं करते, तो अन्यायपूर्ण परिणाम स्थायी हो जाएगा।”
न्यायालय ने माना कि नियम 8(2) इस मामले पर लागू नहीं होता। नियम कहता है:
“यदि किसी चयन में नियुक्ति के लिए उपलब्ध चयनित सीधी भर्ती वाले अभ्यर्थियों की संख्या उस स्रोत से लिए जाने वाले अभ्यर्थियों की संख्या से कम हो, तो न्यायालय न्यायिक सेवा से पदोन्नति द्वारा लिए जाने वाले अभ्यर्थियों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ा सकता है।”
कोर्ट ने इस वाक्यांश “चयनित अभ्यर्थी जो नियुक्ति के लिए उपलब्ध हों” पर बल देते हुए कहा कि यदि कोई अनुशंसित अभ्यर्थी मंजूरी न पाए, तो सूची में अगला अभ्यर्थी “उपलब्ध” माना जाएगा।
न्यायालय ने उदाहरण देकर स्पष्ट किया:
“नियम 8(2) तब लागू हो सकता था जब, उदाहरण स्वरूप, 10 पद विज्ञापित किए गए हों और केवल 9 उम्मीदवार मेरिट सूची में हों, जिससे एक पद रिक्त रह जाए जिसे पदोन्नति द्वारा भरा जाए।”
कोर्ट ने वल्लमपति सतीश बाबू बनाम आंध्र प्रदेश राज्य जैसे मामलों को इस मामले से भिन्न बताया, क्योंकि उनमें संबंधित नियम स्पष्ट रूप से रिक्तियों को आगे बढ़ाने या प्रतीक्षा सूची निषेध करने की बात करते हैं, जो यहां नहीं है।
अंत में न्यायालय ने कहा:
“हाईकोर्ट की व्याख्या को मान लेना नियम के स्पष्ट शब्दों की भावना के साथ अन्याय होगा।”
अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को रद्द किया और निम्न निर्देश दिए:
- अपीलकर्ता को नियुक्ति पत्र दो माह के भीतर जारी किया जाए।
- अपीलकर्ता की वरिष्ठता 2016 की चयन प्रक्रिया के अनुसार कल्पित रूप से मानी जाएगी।
- नियुक्ति की वास्तविक तिथि से पहले कोई वेतन या लाभ देय नहीं होगा।
- भविष्य में वरिष्ठता को लेकर विवाद न हो, इसके लिए अपीलकर्ता को 2016 की विज्ञप्ति के तहत नियुक्त सभी व्यक्तियों के नीचे रखा जाएगा।
कोर्ट ने यह टिप्पणी करते हुए निर्णय का समापन किया कि यह मामला “गंभीर स्तर की जांच” का पात्र था, जो कि डिवीजन बेंच द्वारा नहीं की गई।