सुप्रीम कोर्ट ने एक ग्रामिण डाक सेवक (शाखा डाकपाल) को सेवा से हटाने के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि ग्राहकों और बैंकिंग संस्थानों (डाकघरों सहित) के बीच संबंध आपसी विश्वास पर टिका होता है, और धन की हेराफेरी जैसे कृत्य इस विश्वास को सीधे तौर पर चोट पहुँचाते हैं।
न्यायमूर्ति राजेश बिंदल और न्यायमूर्ति मनमोहन की पीठ ने केंद्र सरकार की अपील स्वीकार करते हुए राजस्थान हाई कोर्ट के सितंबर 2024 के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें कर्मचारी की बर्खास्तगी को “संदेह मात्र” बताकर निरस्त कर दिया गया था।
पीठ ने कहा कि जून 2011 की निरीक्षण रिपोर्ट में यह साफ सामने आया कि कई खाताधारकों की पासबुक पर जमा राशि की मुहर लगी हुई थी, जबकि डाकघर की आधिकारिक खाताबही (बुक्स ऑफ अकाउंट) में उसके अनुरूप कोई प्रविष्टि नहीं की गई थी।
अदालत ने कहा,
“दस्तावेज़ों से गबन का तथ्य स्पष्ट रूप से स्थापित होता है। खाताधारकों की पासबुक में जमा राशि की मुहरें थीं, जबकि डाकघर द्वारा रखी गई खाताबही में उसकी कोई प्रविष्टि नहीं थी।”
पीठ ने यह भी कहा कि यह केवल संयोग था कि यह गबन समय रहते पकड़ में आ गया; लेकिन केवल वापस पैसे जमा कर देने से कर्मचारी को कदाचार से मुक्ति नहीं मिलती।
सुप्रीम कोर्ट ने जोर देते हुए कहा कि खाताधारक डाकघर की आंतरिक बहीखातों की जांच नहीं कर सकते और न ही उनसे ऐसी उम्मीद की जा सकती है।
पीठ ने कहा,
“ग्राहक और बैंकर का संबंध आपसी विश्वास का है।”
कर्मचारी ने यह तर्क दिया कि नियमों की जानकारी न होने के कारण पासबुक पर मुहर लगाई गई, पर अदालत ने इसे अविश्वसनीय बताया।
अदालत ने कहा कि लगभग 12 साल की सेवा के बाद नियमों की अज्ञानता का दावा स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसे “काफी दूर की कौड़ी” बताया गया।
कर्मचारी के खिलाफ दिसंबर 2013 में चार्जशीट जारी की गई थी। जांच अधिकारी ने सभी आरोपों को साबित पाया, और कर्मचारी का जवाब सुनने के बाद दिसंबर 2014 में उसे सेवा से हटाने का आदेश दिया गया।
केंद्र सरकार और अन्य अपीलकर्ताओं की याचिका स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट का आदेश रद्द किया और बर्खास्तगी को पूरी तरह बहाल कर दिया।




