सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार से कड़े शब्दों में सवाल किया कि ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स (रैशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) अधिनियम, 2021 के प्रावधान, जिन्हें पहले ही असंवैधानिक घोषित किया जा चुका है, को केवल “थोड़े-बहुत बदलावों” के साथ फिर से कैसे लागू किया जा सकता है।
मुख्य न्यायाधीश बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने यह टिप्पणी उस दौरान की जब वह मद्रास बार एसोसिएशन समेत कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिनमें इस कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है।
यह अधिनियम कई अपीलीय ट्रिब्यूनलों — जिनमें फिल्म प्रमाणन अपीलीय ट्रिब्यूनल भी शामिल है — को समाप्त करता है और विभिन्न ट्रिब्यूनलों में सदस्यों की नियुक्ति और कार्यकाल की शर्तों में संशोधन करता है।
“आप वही कानून दोबारा नहीं बना सकते”: सुप्रीम कोर्ट
मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा कि अदालत संसद की विधायी शक्ति पर सवाल नहीं उठा रही, बल्कि यह देख रही है कि जो कानून पहले रद्द किया जा चुका था, उसे “यहां-वहां कुछ छोटे बदलावों के साथ” दोबारा कैसे लागू किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, “सवाल यह है कि संसद वही कानून, जिसे पहले असंवैधानिक बताया गया, उसे मामूली बदलावों के साथ दोबारा कैसे लागू कर सकती है? आप वही कानून दोबारा नहीं बना सकते।”
इस पर अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने तर्क दिया कि संसद को कानून बनाने से नहीं रोका जा सकता, भले ही पहले उसका कोई संस्करण रद्द किया गया हो।
“संसद ने जवाबदेही, भरोसे और दक्षता के मुद्दों पर गंभीर विचार किया है। यह कानून किसी कल्पना का परिणाम नहीं बल्कि गहन विमर्श का परिणाम है,” उन्होंने कहा।
सरकार का पक्ष: ‘न्यायिक स्वतंत्रता और प्रशासनिक दक्षता के बीच संतुलन’
अटॉर्नी जनरल ने कहा कि यह अधिनियम न्यायिक स्वतंत्रता और प्रशासनिक दक्षता के बीच एक संतुलित ढांचा प्रस्तुत करता है। उन्होंने बताया कि नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका की भूमिका सीमित है और प्रधानता न्यायपालिका की बनी हुई है।
उन्होंने कहा, “नियुक्तियों में कार्यपालिका की भागीदारी है, लेकिन वीटो का अधिकार मुख्य न्यायाधीश के पास है। चयन और पुनर्नियुक्ति दोनों प्रक्रियाओं में न्यायिक सदस्य बहुमत में हैं।”
वेंकटरमणी ने कहा कि पांच वर्ष का कार्यकाल और एक बार पुनर्नियुक्ति की अनुमति देने का प्रावधान सुप्रीम कोर्ट के रोजर मैथ्यू (2019) फैसले में उठाई गई चिंताओं का समाधान करता है।
उन्होंने कहा, “अगर पांच साल का कार्यकाल उचित माना जाए और उसमें एक बार पुनर्नियुक्ति का प्रावधान हो, तो यह एक अच्छा अभ्यास होगा।” उन्होंने जोड़ा कि पुनर्नियुक्ति प्रदर्शन के आधार पर होगी, न कि कार्यपालिका की मर्जी पर।
याचिकाकर्ताओं का तर्क: न्यायिक स्वतंत्रता पर हमला
मद्रास बार एसोसिएशन सहित याचिकाकर्ताओं का कहना है कि 2021 का यह कानून न्यायिक स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और कार्यपालिका को ट्रिब्यूनलों पर अत्यधिक नियंत्रण देता है।
इसके जवाब में अटॉर्नी जनरल ने कहा कि “यदि न्यूनतम स्वतंत्रता सुनिश्चित की गई है और कार्यपालिका की भूमिका संतुलित रूप में है, तो इसे न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता।”
उन्होंने अदालत से अनुरोध किया कि वह संसद की समझ को “अनिश्चित या मनमाने मानदंडों” से प्रतिस्थापित न करे। “संसद ने अपने लंबे अनुभव के आधार पर यह समझ बनाई है,” उन्होंने कहा।
पृष्ठभूमि: पहले भी रद्द हो चुके हैं समान प्रावधान
सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स ऑर्डिनेंस, 2021 के कई प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित किया था — जिनमें से ज्यादातर को सरकार ने अगस्त 2021 के अधिनियम में दोबारा शामिल किया।
उस फैसले में अदालत ने निम्नलिखित प्रावधान रद्द किए थे —
- चार साल का कार्यकाल, जिसे बढ़ाकर पांच साल करने का निर्देश दिया गया।
- 50 वर्ष की न्यूनतम आयु की शर्त, यह कहते हुए कि इससे युवा वकीलों की भागीदारी बाधित होती है।
- कार्यपालिका को दो नामों के पैनल से चयन का अधिकार, जिसे अदालत ने अस्वीकार किया।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया था कि न्यायिक सदस्यों के लिए कम से कम 10 वर्षों का वकालती अनुभव पर्याप्त योग्यता है, और अधिकतम आयु सीमा अध्यक्ष के लिए 70 वर्ष तथा सदस्य के लिए 67 वर्ष होगी।
केंद्र की ‘लास्ट मिनट’ मांग पर नाराज़गी
सुनवाई से पहले सरकार ने यह आग्रह किया कि मामले को पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ को भेजा जाए। इस पर पीठ ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि सुनवाई के अंतिम चरण में ऐसी याचिका दाखिल करना उचित नहीं है।
इन याचिकाओं पर सुनवाई जारी है, जिनमें ट्रिब्यूनल्स रिफॉर्म्स (रैशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) अधिनियम, 2021 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है।




