सुप्रीम कोर्ट ने छह दोषियों को सुनाई गई तीन साल की सज़ा को निलंबित कर दिया है। अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालयों में आपराधिक अपीलों की भारी लंबित स्थिति न्याय की विफलता का कारण बन सकती है, क्योंकि अपील की सुनवाई से पहले दोषियों को सज़ा भुगतने के लिए बाध्य करना अन्याय होगा।
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति विजय बिश्नोई की पीठ ने 10 सितंबर को पारित आदेश में कहा कि दोषियों ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में अपनी सज़ा के खिलाफ अपील दाखिल की है, लेकिन वहां अपील की सुनवाई निकट भविष्य में संभव नहीं है।
पीठ ने टिप्पणी की, “अपील का अधिकार वैधानिक अधिकार है। अपीलार्थी हिरासत में हैं। उच्च न्यायालयों में आपराधिक अपीलों की लंबित संख्या बहुत अधिक है और निकट भविष्य में सुनवाई की संभावना नहीं है।”
अदालत ने कहा कि अपील का निस्तारण हुए बिना दोषियों को सज़ा भुगतने के लिए मजबूर करना “न्याय का हनन” होगा। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि हाईकोर्ट ने इस पहलू पर विचार नहीं किया, जब उसने मार्च 2025 में उनकी सज़ा निलंबन याचिका खारिज की थी।

छह दोषियों को एक आपराधिक मामले में तीन साल कैद और जुर्माने की सज़ा सुनाई गई थी। इनमें से दो को POCSO अधिनियम, 2012 के तहत भी दोषी ठहराया गया था। उनकी सज़ा निलंबन याचिका को छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने मार्च 2025 में खारिज कर दिया था, जिसके बाद वे सुप्रीम कोर्ट पहुँचे।
राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दोषियों को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया। अदालत ने कहा कि ज़मानत ट्रायल कोर्ट द्वारा लगाए गए बांड और शर्तों के अधीन होगी। साथ ही, हाईकोर्ट को उनके अपीलों की जल्द सुनवाई करने का निर्देश दिया गया। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि अपीलार्थी अनावश्यक स्थगन मांगते हैं या सुनवाई में सहयोग नहीं करते, तो हाईकोर्ट ज़मानत रद्द करने सहित उचित आदेश पारित करने के लिए स्वतंत्र होगा।