बिना अंतिम निर्णय के 6-7 वर्षों की कैद, अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय के अधिकार का उल्लंघन: सुप्रीम कोर्ट

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने लंबी अवधि तक विचाराधीन कैद में रखने की प्रथा पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा कि किसी आरोपी को छह-सात वर्षों तक अंतिम निर्णय के बिना हिरासत में रखना संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।

तापस कुमार पलीत बनाम छत्तीसगढ़ राज्य (क्रिमिनल अपील संख्या 738/2025) मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने एक विचाराधीन कैदी को जमानत दी, जिसने पहले ही पांच साल न्यायिक हिरासत में बिता दिए थे। न्यायालय ने अभियोजन पक्ष द्वारा मुकदमे में हो रही देरी और 100 गवाहों की जांच की आवश्यकता पर सवाल उठाते हुए कहा कि न्याय प्रणाली को गंभीर मामलों में भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का सम्मान करना चाहिए।

मामले की पृष्ठभूमि

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यह मामला 24 मार्च 2020 को दर्ज एफआईआर (संख्या 9/2020) से संबंधित है, जिसमें आरोपी पर गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 (UAPA), छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम, 2005 और भारतीय दंड संहिता, 1860 की विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे।

तापस कुमार पलीत को तब गिरफ्तार किया गया जब पुलिस ने एक वाहन (CG-07/AH-6555) को रोका, जिसमें नक्सली गतिविधियों से संबंधित सामग्री पाई गई। जब्त सामान में शामिल थे:

  • 95 जोड़ी जूते
  • हरा-काला प्रिंटेड कपड़ा
  • दो बंडल इलेक्ट्रिक वायर (100 मीटर प्रत्येक)
  • एलईडी लेंस
  • वॉकी-टॉकी और अन्य वस्तुएं
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पांच साल बीत जाने के बावजूद मुकदमा पूरा नहीं हुआ, जिसमें केवल 42 गवाहों की गवाही दर्ज की गई थी, जबकि अभियोजन पक्ष ने 100 गवाहों को बुलाने का इरादा जताया था। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने पहले जमानत देने से इनकार कर दिया था, जिसके बाद आरोपी ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।

सुप्रीम कोर्ट की प्रमुख टिप्पणियां

1. त्वरित न्याय का अधिकार मौलिक अधिकार है (अनुच्छेद 21)

सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि त्वरित न्याय का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है।

“कितना भी गंभीर अपराध क्यों न हो, आरोपी को अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय का मौलिक अधिकार प्राप्त है।”

अदालत ने कहा कि न्याय में देरी, न्याय से वंचित करने के समान है, और मुकदमों में अत्यधिक देरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन करती है और न्याय प्रणाली में विश्वास को कमजोर करती है।

2. लंबे समय तक विचाराधीन कैद अन्यायपूर्ण

अदालत ने अभियुक्तों को वर्षों तक हिरासत में रखने की प्रथा की निंदा की।

“यदि किसी आरोपी को छह-सात वर्षों की कैद के बाद अंतिम निर्णय मिलता है, तो यह स्पष्ट रूप से उसके अनुच्छेद 21 के तहत त्वरित न्याय के अधिकार का उल्लंघन है।”

अदालत ने यह भी कहा कि विचाराधीन कैदियों को भारी मानसिक, सामाजिक और आर्थिक नुकसान होता है।

“लंबे मुकदमे का मानसिक तनाव आरोपी व्यक्तियों पर गहरा प्रभाव डालता है, जो तब तक निर्दोष माने जाते हैं जब तक कि वे दोषी साबित न हो जाएं। आरोपी को उनके लंबी अवधि की कैद के लिए कोई वित्तीय मुआवजा नहीं दिया जाता। उन्हें नौकरी या निवास खोने, पारिवारिक संबंधों को नुकसान पहुंचने और कानूनी शुल्क में भारी राशि खर्च करने का सामना करना पड़ सकता है।”

इसके अलावा, अगर आरोपी निर्दोष साबित हो जाए, तो उसे समाज में बदनामी झेलनी पड़ती है।

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“अगर कोई आरोपी निर्दोष पाया जाता है, तो उसे अपने समुदाय में महीनों तक कलंकित और बहिष्कृत किया जा सकता है और उसे अपने जीवन का पुनर्निर्माण खुद करना पड़ता है।”

3. 100 गवाहों की आवश्यकता पर सवाल

सुप्रीम कोर्ट ने अभियोजन पक्ष द्वारा 100 गवाहों की जांच की जरूरत पर सवाल उठाते हुए कहा:

“अगर किसी विशेष तथ्य को साबित करने के लिए पहले ही 10 गवाहों की गवाही दर्ज हो चुकी है, तो उसी तथ्य के लिए और गवाहों को बुलाने का कोई औचित्य नहीं है।”

न्यायालय ने अभियोजन पक्ष को अनावश्यक रूप से गवाहों को बुलाने से बचने की सलाह दी और पुराने न्यायिक निर्णय मलक खान बनाम सम्राट (AIR 1946 PC 16) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि:

“अभियोजन पक्ष को विवेकपूर्ण तरीके से गवाहों का चयन करना चाहिए ताकि मुकदमे की प्रक्रिया प्रभावी बनी रहे।”

न्यायालय ने विशेष न्यायाधीश (NIA) को निर्देश दिया कि यदि अनावश्यक गवाहों को बुलाया जा रहा हो तो अभियोजन पक्ष से कारण पूछें।

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“विशेष न्यायाधीश को अभियोजन पक्ष से पूछना चाहिए कि किसी गवाह को बुलाने का क्या कारण है, यदि वह वही बात कहने वाला है जो पहले किसी अन्य गवाह ने कही थी।”

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि मुकदमे में देरी, न केवल आरोपी बल्कि पीड़ितों और न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता के लिए भी हानिकारक है।

अदालत का अंतिम निर्णय

सुप्रीम कोर्ट ने तापस कुमार पलीत को जमानत देते हुए निम्नलिखित शर्तें रखी:

  • वह छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में प्रवेश नहीं करेंगे।
  • उन्हें प्रत्येक सुनवाई में ऑनलाइन उपस्थित होना होगा।
  • अंतिम बयान (धारा 313 सीआरपीसी) दर्ज करने के लिए ही व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक होगी।
  • जमानत की किसी भी शर्त का उल्लंघन होने पर जमानत स्वतः रद्द हो जाएगी।

अदालत ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए, निचली अदालत को मुकदमे को शीघ्र समाप्त करने का निर्देश दिया।

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